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७. चित्र-दर्शन
महान् वैज्ञानिक आचार्य पद्मसागर की साधना संपन्न हुई । उनको अपनी उपलब्धि पर अपार हर्ष हो रहा था । मनुष्य जब अपने ध्येय को पा लेता है, तब उसे अपूर्व तृप्ति की अनुभूति होती है ।
आचार्य पद्मसागर के हर्ष का मुख्य कारण यह था कि युवराज महाबलकुमार उनका उत्तर साधक था । उसकी निष्ठा और धैर्य अपूर्व था । महाबलकुमार ने रात-दिन सजग रहकर आचार्य पद्मसागर की सिद्धि में सहयोग दिया
था ।
आचार्य पद्मसागर ने कष्टसाध्य मानी जाने वाली रूपपरावर्तिनी गुटिका का निर्माण किया था । इसके अतिरिक्त 'भूस्तरदर्शक' अंजन तथा द्रुतगति से गमन करने योग्य एक औषधि का भी निर्माण किया था । इनके साथ-साथ चार-पांच अन्य वस्तुएं भी बनाई थीं । आचार्य पद्मसागर अपने सभी कार्यों में सफल हुए थे । वे 'पवन-पादुका' बनाना चाहते थे, किन्तु उसके निर्माण में छह महीने का काल लगता था, इसलिए उसके निर्माण को भविष्य के लिए छोड़ दिया ।
पवन - पादुका के निर्माण में विशेष प्रकार का काष्ठ प्रयुक्त होता था । वह काष्ठ केवल त्रिविष्टप अथया नेपाल के उत्तरीय भाग में ही उपलब्ध हो सकता था । इस काष्ठ के अतिरिक्त अन्य बीसों द्रव्य इसके निर्माण में आवश्यक थे... इन सबकी संयुति छह मास पूर्व होनी असंभव थी, इसलिए अंतिम रात्रि में आचार्य ने युवराज से कहा- 'वत्स ! यदि तेरा सहयोग प्राप्त नहीं होता तो मैं अपनी सिद्धि नहीं कर पाता और इतनी बहुमूल्य और कष्टसाध्य वस्तुओं का निर्माण नहीं हो पाता अब केवल एक वस्तु के निर्माण की इच्छा शेष है । उसके निर्माण में पूरे छह मास लगते हैं इसलिए उस कार्य को भविष्य के लिए छोड़ देता हूं ।'
युवराज महाबल ने सहज ही प्रश्न करते हुए पूछा -- ' ऐसी कौन-सी वस्तु का निर्माण आप करना चाहते हैं ?" 'पवन-पादुका ।'
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महाबल मलयासुन्दरी ३३
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