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पलंग है ही नहीं।
उसने सुशर्मा से कहा-'आर्य ! अर्धनिद्रित अवस्था का प्रकार अच्छा लगता है, पर यहां वैसा सुन्दर पलंग नहीं है, जिस पर मैं सो सकूँ । यदि आप मेरे भवन पर आ सकें तो..."
'नहीं, देवी ! ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है । अतिभव्य पलंग का चित्रांकन करना तो मेरी कल्पना पर निर्भर करता है। अब आप मेरी इस शय्या पर सो
जाएं।'
चन्द्रसेना ने शय्या पर दृष्टि डाली । वह अत्यन्त अव्यवास्थित थी। उसे उस पर सोना पसन्द नहीं था । सुशर्मा ने उसके मनोभावों को पढ़ते हुए कहा'देवी ! आप संकोच न करें। मैं अतिभव्य पलंग का चित्रांकन करूंगा। आप सो जाएं। आपका दाहिना हाथ मस्तक के नीचे रहे । दूसरा हाथ स्वतन्त्र रहे।'
'हूं, परन्तु। 'क्या, देवी ? 'आप बाहर जाएं तो मैं अपने वस्त्र...।'
बीच में ही सुशर्मा ने कहा--'वस्त्रों को उतारने की आवश्यकता नहीं है। आप केवल सो जाएं.''कलाकार की दृष्टि इतनी निकृष्ट नहीं होती कि वह किसी नारी का अनावरण रूप देख सके । मेरी आंखों में आपके स्वरूप का सूक्ष्मतम भाव अंकित हो जाएगा 'परसों आप उस चित्र को देख सकेंगी... चित्र देखने के बाद आप मुझे कुछ कहना।' ___ 'प्रिय सुशर्मा ! मुझे लगता है कि आप मेरे मन को केवल संतुष्ट करने के लिए।
'नहीं, देवी ! आपकी बात मैंने स्वीकार ली है। इसमें कोई दंभ या मायाचार नहीं है । मैं आपके शरीर का निरावरण चित्रांकन करूंगा।'
देवी चन्द्रसेना उस शय्या में लेट गई। चित्रकार ने चित्र के दोषों को मिटाने के लिए चन्द्रसेना को हाथ कैसे रखना है, पैर कैसे रखने हैं, नयन अर्धनिमीलित तथा हाथ के पंजों पर मस्तक हो—यह सब स्वयं अपने हाथों से चन्द्रसेना का स्पर्श कर किया। आर्य सुशर्मा को इस स्पर्श का कोई खयाल ही नहीं था। जैसे मनुष्य पत्थर की मूर्ति का स्पर्श करते समय निर्विकार रहता है वैसे ही सुशर्मा जीवन्त स्त्री-प्रतिमा का स्पर्श करते हुए विकार से दूर रहा। चन्द्रसेना के हृदय में इस स्पर्श ने कंपन पैदा कर दिया था और उसने मन-ही-मन सोंच लिया कि वह उठ खड़ी हो और सुशर्मा के बाहुपाश में बंध जाए । पर वह संभल गई।
सुशर्मा दूर एक कोने में खड़ा-खड़ा ताड़ पत्र पर तूलिका से कुछ रेखाएं बना रहा था और चन्द्रसेना का वदन उसकी आंखों में समा चुका था।
लगभग एक घटिका बीत गई। सुशर्मा ने कहा--'देवी ! परसों आपको
महाबल मलयासुन्दरी २५
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