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________________ उसमें दोनों बैठ जाओ। मेरे आदमी ऊपर खींच लेंगे, फिर जहां जाना हो, चले जाना।' __ मलया ने महाबल का हाथ थामते हुए कहा-'स्वामी ! यह जो बोल रहा है, यही नगरी का दुष्ट राजा कंदर्पदेव है''मुझे इसके शब्दों पर तनिक भी विश्वास नहीं है।' __ 'प्रिये ! अब तो मैं तेरे साथ हैं। भय की कोई बात नहीं है। एक बार हमें इस अंधकूप से निकल जाना है, फिर देख लेंगे।' इतने में दो ऊंचे-चौड़े बर्तन मजबूत रस्सी से बंधे हुए नीचे आए । राजा ने कहा---'दोनों बैठ जाएं।' राजा फिर चिल्लाया-'ठीक बैठ गए न ?' 'हां, महाराज !' महाबल ने कहा । 'अच्छा।' कहकर राजा ने अपने आदमियों से उन बर्तनों को ऊपर खींचने के लिए कहा । और महाबल के बर्तन को खींचने वाले तीनों आदमियों से कहा-- 'आधी दूर आए तब रस्सी को काट देना।' दुष्ट राजा के आदमी समझ गए। मलया जिस बर्तन में बैठी थी, वह तत्काल तेजी से ऊपर खींच लिया गया, तब तक महाबल का बर्तन केवल आधी दूर ही आ पाया था और तभी राजा के आदमियों ने रस्सी काटकर महाबल को पुनः कूप में गिरा दिया। मलयासुंदरी चौंकी। उसने वहीं से पुनः कुएं में कुदने का प्रयत्न किया। राजा ने उसे खींचकर बाहर निकाल लिया। मलया बोली-'महाराज ! राजा वचन का पालन करता है। आपने मेरे स्वामी को पुनः कुएं में डाल दिया। कितनी आपदाओं को झेलने के बाद मैंने अपने प्राणप्रिय को पाया था.''आपको ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए था।' राजा ने धीरे से कहा---'ऐसे भिखारी के साथ तेरा जीवन बिगड़े, यह उचित नहीं है।''अब तो मैं ही तेरा प्राणाधार बनूंगा।' मलया कांप उठी। ओ कर्मदेव ! इतनी कठोर कसौटी ! आखिर कब तक ? तीव्र अग्नि में स्वर्ण भी पिघल जाता है, जलकर राख हो जाता है। मुझे अभी क्या-क्या दुःख भोगने पड़ेंगे.एक हाथ में आशा का थाल आता है और उसी क्षण लूट लिया जाता है, इससे अच्छा तो यह होता कि मैं उस अंधकूप में अपने प्रियतम के साथ ही रहती। 'इन विचारों में उलझी हुई मलया रो पड़ी। राजा की आज्ञा से मलया को एक पालकी में बिठा दिया गया और राजा उसे लेकर अपने नगर की ओर चल पड़ा। राजा ने इस बार मलयासुंदरी को अपने राजभवन में न रखकर एक पुराने भवन में रखा। वह कारावास जैसा ही था । उसे बंदी बनाकर सैकड़ों रक्षकों को २८८ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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