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________________ दूसरे दिन का प्रथम प्रहर । राजसभा में नगर के संभ्रान्त व्यक्ति एक-एक कर उपस्थित हो रहे थे । थोड़ी देर में वह खचाखच भर गया । राजा ने अपने परिवार के साथ राजसभा में प्रवेश किया। सभी व्यक्तियों ने जय-जयकार से राजा का वर्धापन किया । ४. कलाकार का सम्मान आर्य सुशर्मा ने अपने सारे चित्र प्रस्तुत किए। राजा ने उन्हें सूक्ष्मता से देखा । रानी कनकवी ने सभी चित्र देखे । उसने अपने चित्र को देखकर आश्चर्य व्यक्त करते हुए मन-ही-मन सोचा - 'क्या मैं इतनी सुन्दर हूं ?' संभ्रान्त लोगों ने भी चित्रों का अवलोकन किया। चित्रों की सजीवता और रेखाओं में सूक्ष्म भावों का अंकन देखकर सभी ने कलाकार की कलाकृतियों को सराहा। राजा ने प्रसन्न होकर उसे पुरस्कार दिया। आर्य सुशर्मा उस पुरस्कार को देख स्तब्ध रह गया । राजसभा का कार्य संपन्न कर वह अतिथिभवन में अपने स्थान पर आ गया। उसने सोचा- राजा ने मुझे बहुत धन दिया है । किन्तु मैं एक अकिंचन ब्राह्मण हूं। मुझे इतने धन की आवश्यकता ही क्या है ? जरूरत से अधिक रखना अपराध है । मैं अपने घर हजार स्वर्ण मुद्राएं भेज देता हूं, शेष सात हजार स्वर्ण मुद्राओं का इसी नगरी में वितरण कर दूंगा ।' इस विचार को लेकर वह महामंत्री के घर गया और अपने विचार बताए । महामंत्री ने कहा- 'आर्य सुशर्मा ! अन्याय का धन प्राप्त हो तो वह अपराध हो सकता है । यह तो राजा ने स्वयं दिया है । आपको इसे घर ले जाना चाहिए । धन के प्रति इतना वैराग्य क्यों ?' आर्य सुशर्मा ने कहा- 'मैं जैन हूं । परिग्रह पाप का मूल है, यह मैं हृदयंगम कर चुका हूं। यह मोक्ष मार्ग का अवरोधक है । यह भार है "यह चंचल है." इसके प्रति विरक्ति ही अच्छी है ।' महामंत्री ने कहा- 'धन्य हैं आप ! इतनी छोटी अवस्था में इतनी विरक्ति को अपनाकर चल रहे हैं। मैं आपके धन का सत्कार्य में उपयोग करूंगा । आप निश्चिन्त रहें ।' महाबल मलयासुन्दरी २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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