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________________ 'अभी जीवित है ? 'हां, कृपावतार !' 'तब चलो।' कहकर राजा मलया की ओर चला। निकट आकर उसने मलया की आकृति देखी और विस्मित हो गया। उसने तत्काल पालकी लाने का आदेश दिया। दो व्यक्ति दौड़े-दौड़े पालकी लाने गए। और उस समय मलया ने नेत्र खोले 'कहां है सागर? 'कहां है मत्स्यराज की सवारी? 'कहां ये सब मनुष्य? कहां से आया किनारा? यह सब कैसे हुआ ? क्या यह मात्र स्वप्न है अथवा सत्य है ? राजा ने कहा-'तू तनिक भी चिन्ता मत कर''यह सागर तिलक नगर का बंदरगाह है। मैं इस नगरी का राजा कंदर्पदेव हूं...' ऐसा कहकर उसने एक साथी के सहयोग से मलया को उठाने का प्रयत्न किया। किन्तु मलया ने स्वयं उठने का प्रयास किया और पुनः मूच्छित होकर गिर पड़ी। राजा उसे पालकी में बिठा राजमहल में ले गया। राजा कंदर्पदेव सागरतिलक नगर का स्वामी था। उसके अन्तःपुर में आठ रानियां थीं। फिर भी उसका चित्त नवयौवनाओं को भोगने के लिए लालायित रहता था। यदा-कदा वह ऐसी स्त्रियों को लाकर इस विशेष भवन में रखता था और उनके साथ रंगरेलियां करता था। मलया को देखकर उसे प्रतीत हुआ कि ऐसी रूपवती सुन्दर, और स्वस्थ नारी पूर्वाजित पुण्य के बल पर ही प्राप्त हो सकती है । इसकी आकस्मिक प्राप्ति के कारण राजा के चित्त में निवास करने वाला विलासी राक्षस आनंद से उछल रहा था। राजवैद्य ने मलया का औषधोपचार किया। उसने सर्वप्रथम प्रचेतना नामक औषधि की एक बूंद मलया के मुंह में डाली और तत्काल मलया की मूर्छा टूट गई। चेतना आते ही मलया बोली-'मैं कहां हूँ ?' 'बेटी! तू सागरतिलक नगर के महाप्रतापी राजा कंदर्पदेव के राजमहल में है । महाराजा तुझे समुद्र के किनारे से यहां लाये हैं। तू निश्चिन्त रह । तू आठ दिन तक औषधि का सेवन कर । पहले से अधिक स्वस्थ हो जाएगी।' मलया सागरतिलक नगर का नाम सुनते हो चौंकी निश्चित ही पुण्यबल से मैं यहां आ पहुंची हूं। यह तो बलसार का नगर है। मेरा पुत्र मुझे यहां मिल जाएगा और मैं पुत्र को लेकर पीहर चली जाऊंगी। राजा कंदर्पदेव मेरे पिता और श्वसुर का भयंकर शत्रु है। यदि इसे ज्ञात हो जाए कि मैं वीरधवल राजा की पुत्री और सुरपाल महाराजा की पुत्रवधू हूं तो यह मुझे कारावास में २६८ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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