SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'कल मैंने आपसे मेरे निरावरण चित्रांकन के लिए मुंहमांगा धन देने के लिए कहा था किन्तु आज मैं अनुभव कर रही हूं कि ऐसा कहकर मैंने आपका बहुत बड़ा अपमान किया है. इस अपराध के लिए आप मुझे क्षमा करें।' 'देवी मुझे लज्जित न करें। 'तो आप मेरा एक निरावरण चित्रांकन करें।' 'देवी ! निरावरण चित्र का अंकन करना कला का अपमान है "उपासक अपने आराध्य का अपमान कैसे कर सकता है ?' 'क्या जब मनुष्य जन्मता है तब वह निरावरण नहीं होता? निरावरण अवस्था प्रकृति का सही स्वरूप है । मैं अपने मूल स्वरूप में अपने आपको देखना चाहती हैं।' 'देवी ! बालक निर्दोष होता है किन्तु यौवन किसी-न-किसी दोष से दूषित होता है और फिर आप-जैसी गुण-संपन्न नारी अपने निरावरण शरीर को लोगों के समक्ष क्यों रखेगी ?' 'मैं वह चित्र बाहर नहीं रखूगी, केवल अपने में ही संजोए रखूगी।' 'आपके स्वामी...' मैं चिर-कुंवारी हूं।' सुशर्मा यह सुनकर अवाक रह गया। वह कुछ नहीं बोला, किन्तु एकटक चन्द्रसेना की ओर देखता रहा। चन्द्रसेना बोली-'मैं इस नगरी की गणिका हूं' 'मेरे यहां अनेक युवक कामशास्त्र का अभ्यास करने के लिए आते रहते हैं।' 'ओह !' कहकर सुशर्मा विचार में पड़ गया। चन्द्रसेना बोली--'मेरे परिचय से आपको घृणा तो नहीं हुई !' 'नहीं, देवी ! ऐसा कुछ नहीं है। किन्तु मुझे एक दूसरा ही विचार झकझोर रहा है।' ' . 'कौन-सा विचार ?' 'आपके निरावरण शरीर का चित्रांकन करना बहुत कठिन कार्य है... काया पर एक आवरण है त्वचा का और इसी त्वचा के पीछे मनुष्य का वास्तविक रूप छिपा रहता है।' 'त्वचा के पीछे !' चन्द्रसेना कुछ भी नहीं समझ सकी। 'हां, देवी ! 'काया के यथार्थ सौन्दर्य की अभिव्यक्ति अत्यन्त कठिन होती है। दूसरी बात यह है कि कल मुझे सारे चित्र समर्पित करने के लिए राजदरबार में जाना होगा और परसों मैं यहां से प्रस्थान कर दूंगा।' 'अच्छा, तो आप मेरी प्रार्थना के प्रति तनिक भी सहानुभूति नहीं रखते ?' दो क्षण सोचकर आर्य सुशर्मा ने कहा—'देवी ! आपने मेरा सत्कार भावना १८ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy