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५०. शील की रक्षा
समुद्र शांत और गंभीर था । यानपात्र में यात्रा करते-करते छह दिन बीत चुके थे। सातवें दिन बलसार ने ऊर्मिला को बुलाकर कहा - 'प्रिय ऊर्मिला ! मैं मलया के बिना एक पल भी नहीं रह सकता । तू मेरी वेदना को नहीं जानती ।'
'सेठजी ! मैं आपकी काम-वेदना की कल्पना कर सकती हूं । किन्तु यह नारी भय से, कला से या बल से -- किसी भी प्रकार वश में होने वाली नहीं है ।' 'ऊर्मिला ! तेरे कथनानुसार मैं छह दिन तक नहीं आया । अब मेरे लिए रह पाना असंभव है ।'
'सेठजी ! धैर्य रखें । मेरा प्रयत्न चालू है ।'
काम की पीड़ा असह्य, अंधी और विवेक को नष्ट करने वाली होती है । फिर भी बलसार ने ऊर्मिला की बात मान ली ।
छह दिन और बीत गए ।
एक दिन बलसार ने ऊर्मिला से कहा - 'ऊर्मिला ! आज का पूरा दिन और कल सायं तक मैं तुझे मलया को समझाने का समय देता हूं। यदि इस समय - मर्यादा में वह समझ जाती है तो उत्तम है, अन्यथा कल रात मुझे उसके साथ जो करना है, करूंगा । विधाता भी मुझे रोक नहीं सकेगा ।'
ऊर्मिला बोली नहीं, मौन हो चली गई ।
इतने दिनों के सहवास से वह समझ चुकी थी कि सेठ के प्रलोभन के वश में होने के बदले इस तेजस्विनी नारी के सतीत्व को नमन करना श्रेयस्कर है । वह मलया के पास आकर बोली -- 'देवी ! विपत्ति के बादल दूर हों, ऐसा नहीं लगता । आज की रात और कल का दिन मेरे हाथ में है । कल की रात वह कामी जो करेगा, वह करेगा ।'
मलया ने हंसते हुए कहा - 'अब तू तनिक भी चिंता न कर । अशक्य को कोई शक्य नहीं बना सकता। नींव का पानी कभी छत पर नहीं चढ़ता । कल रात बलसार आएगा तो समझ लूंगी । ऊर्मिला ! यदि तू मुझे एक कटारी ला दे तो मैं उस नराधम से अपने सतीत्व का रक्षण कर लूंगी ।'
२६० महाबल मलयासुन्दरी
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