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देखकर कहा-'सुन्दरी ! केवल तेरे लिए ही मैंने इस प्रवास की व्यवस्था की है 'तू मेरी बात मान जा और मेरे हृदय की रानी बन जा...'
__ 'श्रीमन् ! आपके लिए ये शब्द शोभा नहीं देते । मेरा निश्चय अटल है। ऊर्मिला ने यदि मूर्खता नहीं की होती तो मैं सागर-प्रवास के लिए नहीं आती... केवल पुत्र की प्राप्ति की आशा लेकर आयी हूं.''आप मेरा पुत्र मुझे सौप दें। मैं कहीं चली जाऊंगी।'
हंसते हुए बलसार बोला-'सुन्दरी ! जिस क्षण तू मेरी बनेगी, उसी क्षण तेरा पुत्र तुझे मिल जाएगा। वह मेरी संपत्ति का स्वामी भी होगा। तू आग्रह मत कर।'
'मेरा पुत्र इस समय कहां है ? मुझे एक बार उसका मुंह देख लेने दें।'
"प्रिये ! तेरा पुत्र मेरे भवन में है और वह पूरे लालन-पालन के साथ वृद्धिंगत हो रहा है। तू मेरी बात मान लेती है तो मैं अभी यानपात्र को सागरतिलक नगर की ओर मोड़ दूंगा।' ___ मलया के नेत्र लाल हो गए थे। उसने संयमित स्वरों में कहा--'सेठजी ! यदि आप मेरे पुत्र को रखना चाहें तो रखें। आप मेरे पर यह उपकार करें कि आप मुझे यहां से अपने भाग्य भरोसे जाने दें। मुझे यहां से मुक्त कर दें। यह उपकार भी मैं बहुत मानूंगी। मैं आपको अपने माता-पिता के समान मानती हूं। आप बेटी का आशीर्वाद प्राप्त करें। आप अपनी पुत्री को और कुछ न दे सकें तो कम-से-कम मुक्ति तो दें। मैं येन-केन-प्रकारेण अपने स्वामी को ढूंढ़ लूंगी।'
पत्थर पर कितना ही पानी डाला जाए, पर वह कभी गीला नहीं होता।
बलसार ने ऊर्मिला की ओर देखकर कहा--'ऊर्मिला! मलया मेरी अन्तर्वेदना नहीं समझ रही है। लगता है मुझे और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी.तु इसके पास ही रहना। और जब इसके विचारों में परिवर्तन हो, तब मुझे बधाई देने के लिए चली आना।''
इतना कहकर बलसार चला गया।
महाबल मलयासुन्दरी २५६
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