________________
वस्त्रों में सुशोभित नहीं हो सकता''सत्य की मर्यादा अनूठी होती है।'
ऊर्मिला ने मन-ही-मन सोचा-यह नारी किसी के महा साम्राज्य के समक्ष भी झुकने वाली नहीं है । कोई भी प्रलोभन इस सत्वशील नारी में लालच पैदा नहीं कर सकता। वह बोली-'देवी ! कभी-कभी आपद्धर्म का सहारा भी लेना पड़ता है।'
'ऊर्मिला, ऐसा करना मेरे लिए असंभव है। मैं प्राणों का विसर्जन कर सकती हूं, पर झूठा अभिनय नहीं कर सकती। अभिनय रंगमंच पर शोभा दे सकता है, पर वास्तविक जीवन का संघर्ष अभिनय से विकृत हो जाता है।'
ऊर्मिला ने सोचा–मलया किसी भी उपाय से परपुरुष को स्वीकार नहीं करेगी 'बस, एक बार वह नौका में बैठकर सेठजी के साथ समुद्र-यात्रा के लिए चल पड़े तो संभव है कि लम्बे समय तक इसके मन को समझाने का प्रयत्न सफल हो जाए। 'किन्तु इस तेजस्विनी नारी के मन को पिघलाना अत्यन्त दुष्कर कार्य
__ अपनी रक्षा का एक उपाय मलया के पास था किन्तु अभी उस उपाय को काम में लेना संभव नहीं था। तापसमुनि ने मलया को यौन-परिवर्तन घटित करने वाली एक वनस्पति दी थी 'किन्तु आम्ररस में घिसकर ही उसका तिलक करना पड़ता था और इस ऋतु में पका आम मिलना दुष्कर था। तापसमुनि द्वारा प्रदत्त उस दिव्य वनस्पति को मलया ने पूर्ण सावधानी से संभालकर रखा था।
चार दिन और बीत गए । इन चार दिनों के बीच बलसार दो बार आया था और ऊर्मिला से मिलकर चला गया था। आज रात्रि में यानपात्र में बैठ जाना था क्योंकि वह यानपात्र प्रातःकाल ही सामुद्रिक यात्रा के लिए प्रस्थान करने वाला था।
बलसार पत्नी प्रियसुन्दरी से विदा लेकर रात्रि के प्रथम प्रहर में ही सामुद्रिक तट पर पहुंच गया। पत्नी के मन पर एक प्रकार का असन्तोष तो रह ही गया था, किन्तु बलसुन्दर की प्राप्ति से उसका चित्त परम प्रसन्न था।
रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा होते ही बलसार के गुप्त भवन के द्वार पर एक रथ आ गया। ऊर्मिला ने मलयासुन्दरी से कहा-'देवी ! चलो, हमें अभी जाना है।'
'कहां?'
'आपके पुत्र को लेने के लिए। जल्दी तैयार हो जाएं। समय बहुत कम है. बाद में आगे की चर्चा करेंगे।'
मलया अवाक रह गई. 'किन्तु उसका ऊर्मिला के प्रति विश्वास था, इसलिए वह तत्काल तैयार हो गई। तापसमुनि द्वारा प्रदत्त वह दिव्य औषधि उसके पास ही थी।
बलसार द्वारा बताई गयी योजना के अनुसार यहां से मात्र पहने हुए कपड़े २५६ महाबल मलयासुन्दरी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org