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४६. ऊर्मिला का छल-प्रपंच
ऐसा सुन्दर भवन प्राप्त हो, दस हजार स्वर्णमुद्राएं मिलें और दासत्व की बेड़ियां टूट जाएं।
मात्र मलयासुन्दरी समझे तो।
बलसार के जाने के पश्चात् इन विचारों के झूले में झूलती हुई ऊर्मिला ऊपर के खंड में मलया के पास गई। मलयासुन्दरी गंभीर विचार-मुद्रा में बैठी थी। मलया के मुरझाए चेहरे को देखते ही ऊर्मिला का स्वप्न टूट गया। 'निर्मल पवित्र और सत्वशील नारी को कौन समझा सकता है.'वह बोली-'देवी ! कौन से विचार आपके हृदय को विदीर्ण कर रहे हैं ?' _ 'ऊर्मिला ! जिन्दगी का अपर नाम है वेदना संसार के सुख-दुःख में फंसा हुआ कौन जीव वेदना-मुक्त होता है ? क्या वह दुष्ट चला गया ?'
'हां, देवी ! किन्तु आप कुछ गंभीर विचार कर रही हैं। ऐसा मुझे लग रहा है।' ___ 'ऊर्मिला ! तू दासी नहीं, मेरी बहन है 'मेरे मन में वे ही विचार आते रहते हैं. मेरा पुत्र मुझे कब मिलेगा ? मैं इस पापी के पंजों से कब छूटेंगी?' । ____ ऊर्मिला ने मधुर स्वरों में कहा-'देवी! मुझे एक सुन्दर उपाय सूझ रहा
'बोल...' 'आपको कुछ अभिनय करना होगा।' 'अभिनय?
'हां, एक बार आप सेठजी को विश्वास में ले लें। उनकी इच्छापूर्ति के लिए अभिनयपूर्वक स्वीकृति दे दें। फिर जब पुत्र मिल जाए तब चुपके से पलायन कर दें।'
मलया ने गंभीर होकर कहा- 'बहन, ऐसा अभिनय करना भी शीलवती के लिए दूषणरूप है। मुंह से उसकी पापेच्छा को स्वीकृति देना और मन में कुछ और रखना, यह भी सतीत्व की एक विडंबना है। कोई भी सत्य असत्य के
महाबल मलयासुन्दरी २५५.
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