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________________ मलया बोली नहीं। उसने बलसार की ओर देखा तक नहीं। बलसार ने खड़े-खड़े कहा---'मलया, मैं तुझे पांच दिन की और अवधि देता हूं । तू सोच ले। तू भूल मत जाना कि तेरा पुत्र मेरे हाथ में है। यदि तू अपने पुत्र का मुख देखना चाहती है तो प्रेम और उल्लास से मेरी बन जा।' मलया मौन रही। बलसार ऊर्मिला को नीचे आने के लिए कहकर चला गया। बलसार के जाने के पश्चात् ऊमिला ने मलया से कहा-'देवी ! धैर्य न खोएं। आपको प्राप्त करने के लिए सेठजी के पास आपका पुत्र ही चाबीरूप है। उसे कैसे प्राप्त किया जाए, यह मैं निरन्तर सोच रही हूं।' मलया ने ऊर्मिला की ओर विश्वासभरी नजरों से देखा। ऊर्मिला नीचे चली गई। बलसार मिला की प्रतीक्षा कर रहा था । मिला ने खंड में प्रवेश किया। बलसार ने तत्काल पूछा---'मिला ! क्या मलया का चिन्तन कुछ बदला है ?' 'सेठजी ! मैंने उसको समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। किन्तु यह नारी बेजोड़ है। यह किसी भी शर्त पर अपना सतीत्व बेचने के लिए तैयार नहीं है एकमात्र पुत्रमोह के लिए शायद ।' बीच में ही बलसार बोला---'ऊर्मिला ! यदि यह कार्य तू सफलतापूर्वक कर देगी तो मैं तुझे दस लाख स्वर्णमुद्राएं दूंगा''इतना ही नहीं, अपना यह भवन मैं तुझे दूंगा और तुझे दासत्व के बंधन से भी मुक्त कर दूंगा।' इस प्रलोभन से ऊर्मिला के नयन चमक उठे। प्रलोभन की उपेक्षा करना एक महान व्यक्ति का काम हो सकता है, परन्तु मिला तो एक दासी थी। बलसार ने ऊर्मिला के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-'यदि मलया यहां नहीं समझेगी तो तू उसे समुद्र-प्रवास के समय समझा सकेगी। इसलिए मैं सामुद्रिक यात्रा में तुझे साथ ले चलूंगा । तू सावचेत रहना । तुझे विश्वास में ले वह कहीं भाग न जाए !' ___'आप निश्चिन्त रहें, मैं प्रयत्न करूंगी। उसमें कोई कमी नहीं रखेंगी। किन्तु आपने जो वचन दिया है...' ___ 'तू कुछ भी सन्देह मत कर । मैं अपने वचन का अक्षरश: पालन करूंगा।' कहते हुए बलसार ने ऊर्मिला को प्रेमभरी नजरों से देखा और वहां से चला गया। भवन पर आकर उसने देखा कि प्रियसुन्दरी उद्यान में बैठी-बैठी बलसुन्दर को क्रीड़ा करा रही है। स्वामी को देखते ही वह बोली-'इधर आएं तो सही।' बलसार पत्नी के पास गया । महाबल मलयामुन्दरी २५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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