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४७. सागरतिलक नगर में
दो घटिका के पश्चात् बलसार मलया को लेकर अपने सथवाड़े से जा मिला। यात्रा चालू थी।
बलसार ने अपने लिए नया रथ तैयार करवाया और ऊर्मिला नामक अपनी विश्वस्त दासी को मलया के रथ में बिठाते हुए कहा-'ऊर्मिला ! इस सुन्दरी की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना है। यात्रा में देवी को कष्ट न हो तथा इसे जो भी वस्तु चाहिए उसकी प्राप्ति तुझे करानी है। इतना ही नहीं, रात-दिन तुझे ही इसकी सेवा में रहना है।'
बलसार मलया को अपनी प्रियतमा बनाना चाहता था । वह स्वयं निःसंतान था, इसलिए मलया के पुत्र को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करना चाहता था।
वह व्यापारी था वह अनेक देशों का पानी पी चुका था "उसने जान लिया था कि यह सुन्दरी सामान्य कुल की नहीं, किसी बड़े घराने की है। विपत्ति में फंसकर अटवी में आ पड़ी है। यह धमकाने या भय दिखाने से वश में नहीं होगी "ममता के साथ तथा प्यार भरे व्यवहार से ही यह हाथ में आ सकती है इसलिए मुझे सबसे पहले इसका विश्वास प्राप्त करना होगा किसी प्रकार की जल्दबाजी लाभप्रद नहीं होगी।
किन्तु बलसार के समक्ष अपनी पत्नी प्रियसुन्दरी का प्रश्न पर्वत जैसा बड़ा था। बलसार अपनी पत्नी के समक्ष लाचार बना रहता था। वह पत्नी को कष्ट देने की स्थिति में नहीं था । पत्नी को स्थिति ज्ञात होने पर वह कैसा रूप धारण करेगी, इसकी कल्पना बलसार को थी। इसलिए उसने निश्चय किया कि पत्नी प्रियसुन्दरी को इसकी भनक भी न मिले, अतः मलया को किसी अन्य भवन में ही रखना उचित होगा।'
मध्याह्न के बाद सार्थ ने एक सुन्दर जलाशय पर पड़ाव डाला।
मलया की एक तंबू में व्यवस्था करते हुए बलसार बोला-'सुन्दरी ! निश्चिन्त रहना । जैसा चाहोगी, वैसा होगा।'
'श्रीमन् ! मुझे और कुछ आकांक्षा नहीं है । आश्रय प्राप्त हो जाए, बस यही २४६ महाबल मलयासुन्दरी
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