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________________ क्या कोई विपत्ति के वश में होकर आयी है ? क्या तेरे पति ने तेरा त्याग कर दिया है ? अथवा किसी ने तेरा अपहरण किया है ?' ___'मैं कौन हूं और यहां क्यों रह रही हूं, यह जानना आपके लिए जरूरी नहीं है । आप मुझे मेरा पुत्र दें। रोते-रोते वह बेहाल हो रहा है।' 'देवी ! तू चिन्ता मत कर'' 'मैं सागरतिलक नगर का निवासी हूं. मेरा नाम बलसार है। मेरे भवन में स्वर्ग-जैसा सुख है। मेरा सार्थ आगे निकल गया है। तू मेरे रथ में बैठ जा। मैं तुझे सुखी कर दूंगा।' बलसार ने कहा। ___मलया समझ गई कि यह धनाढ्य है । इसकी आंखों में कामपिपासा नाच रही है। इसके आश्रय में जाना मेरे लिए हितकर नहीं है। उसने कहा-- 'श्रीमान् ! मैं एक ओछे कुल की नारी हूं। पति के साथ झगड़ा हो गया था, इसलिए घर छोड़कर यहां आ गई । मैं आपके साथ चल नहीं सकती. 'मैं अपने माता-पिता के साथ जाने वाली हूं। आप मुझे मेरा पुत्र जल्दी सौंप दें।' 'सुन्दरी ! तेरा रूप बोल रहा है कि तू ओछे कुल की नहीं है। फिर यदि तू कह रही है कि तू ओछे कुल की है तो मैं इस बात को छिपाकर रखूगा । तू निर्भय होकर मेरे साथ चल । अपने भवन में मैं तुझे राजरानी से भी अधिक सुखी रखूगा' 'तू जैसा कहेगी वैसा होगा'मैं भी तेरी आज्ञा में ही रहूंगा।' इतना कहकर बलसार मलया को लोलुपता की दृष्टि से देखने लगा। 'श्रीमन् ! आप कृपा कर मेरा पुत्र मुझे दे दें। मैं अपना स्थान छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी । मुझे यहां रहने में तनिक भी दुःख नहीं है। दूसरे के सुख की आशा से स्वयं का दु:ख बहुत उत्तम होता है।' मलया ने कहा। बलसार ने अपने साथी से कहा--'तू बाड़ फांद दे । मैं फिर तुझे यह बालक दे दूंगा । हमें शीघ्र चलना है।' 'श्रीमन् !' मलया ने गद्गद स्वरों में कहा। 'सुन्दरी ! यदि तू अपने बालक को चाहती है तो मेरे साथ चल ।' यह कहकर बलसार चलता बना। मलया एक नयी विपत्ति में फंस गई । उसने सोचा-बलसार के साथ जाने से शील की रक्षा असंभव है। 'यदि न जाऊं तो जीवन की आशा से हाथ धोना 'पड़ेगा । अपने शील की रक्षा करना मेरे मनोबल पर निर्भर है। मैं किसी भी विपरीत संयोग में शील की रक्षा कर सकती हूं । यदि मैं इसके साथ नहीं जाती हूं तो चालीस दिनों का छोटा बालक रो-रोकर प्राण दे देगा। ____बलसार का साथी बाड़ को लांघकर बाहर खड़ा था। बलसार ने रोते बालक को उसके हाथों में थमाया और वह बाड़ को लांघने की तैयारी करने लगा। इतने में मलया ने कहा-'आप जैसे श्रीमान् को ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता।' २४४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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