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________________ एक दिव्य आकृति वाला शिशु रो रहा है। बलसार तथा उसके साथियों ने आसपास देखा। कोई नहीं दीखा । बालक को देखकर बलसार आनंदित हो उठा। वह उसके मन को भा गया। उसने बालक को गोद में उठाया और अपने साथी की ओर मुड़कर कहा-'चल, विलम्ब मत कर । बालक भूख से रो रहा है।' 'हां, श्रीमन् ! परन्तु लगता है कि इस कुटीर में कोई-न-कोई रह रहा है।' 'ठीक है किन्तु क्या तू नहीं देखता कि बालक एकाध महीने का ही है । इसकी मां अपने प्रेमी के साथ यहां आयी होगी, बालक को जन्म दे, कुछ दिन रह, इसे यहां छोड़ चली गई होगी।' 'हां, ऐसा ही प्रतीत हो रहा है, अन्यथा ऐसे सुन्दर बालक को इस निर्जन प्रदेश में छोड़कर मां जा नहीं सकती।' बालक अभी भी रो रहा था। बलसार मध्यम वय वाला पुरुष था। परन्तु शक्ति-संपन्न था। उसके शरीर पर अलंकार शोभित हो रहे थे। लगता था कि वह धनकुबेर है । वह बालक को चुप करने का प्रयत्न करता हुआ, उसे लेकर चल पड़ा। उसी समय मलया ने आश्रम में प्रवेश किया। उसने बालक के रुदन को सुना । वह कुटीर की तरफ चली । उसने देखा दो पुरुष चले जा रहे हैं। एक के हाथ में उसका प्रिय पुत्र है और वह जोर-जोर से चिल्ला रहा है। __यह दृश्य देखते ही मलया के कटिभाग पर स्थित जलकुंभ नीचे गिर पड़ा और फूट गया । घड़े के फूटने की आवाज को सुनकर बलसार ने पीछे मुड़कर देखा। पर शीघ्रता के कारण वह कुछ भी नहीं देख सका । वह तत्काल आगे बढ़ गया। मलया किंकर्तव्यमूढ़ हो गई। उसने सोचा-इस अरण्य में कौन आया होगा? मेरे बालक को क्यों ले जाएगा? ले जाने वाला कौन है ? उसने मन को मजबूत कर उस व्यक्ति के पीछे दौड़ना प्रारंभ किया और वह जोर-जोर से चिल्लायी। सार्थवाह बलसार खड़ा हो गया। उसका साथी भी रुक गया। बलसार ने मलया की ओर देखा । उसको देखते ही वह चौंक पड़ा। ऐसा सौन्दर्य इस धरती पर? ऐसे भयंकर अरण्य में ? निश्चित ही यह स्त्री इस बालक की माता है। मलया निकट आकर बोली-'मेरे बालक को क्यों ले जा रहे हो?' मलया के प्रश्न का उत्तर न देते हुए बलसार ने पूछा---'सुन्दरी ! तू कौन है ? इस भयंकर अरण्य में अकेली क्यों रहती है ? तेरे रूप और लावण्य से प्रतीत होता है कि तू किसी बड़े कुल की है "ऐसे भयंकर वन में तुझे क्यों आना पड़ा? महाबल मलयासुन्दरी २४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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