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४५. पुत्रजन्म
विराट् वन-प्रदेश में, तापसमुनि के आश्रम में रहते हुए मलयासुन्दरी को ग्यारह दिन हो चुके थे ।
वृद्ध तापसमुनि के उपदेश से तथा नवकार मंत्र के स्मरण से मलया स्वस्थ हो गई थी । उसके मन में अपने प्रति अन्याय करने वाले के लिए कोई रोष नहीं था, क्योंकि वह कर्मवाद को मानने वाली थी । उसने यह सब अपने ही कर्मों का विपाक माना था। वह प्रियतम को क्षण-भर के लिए भी विस्मृत नहीं कर पा रही थी । उसने सोचा -- प्रियतम विजय प्राप्त कर आ गए होंगे । भवन को सूना देख उनका मन कितना व्यथित हो रहा होगा । यह सोचते ही मलया के नयन आंसू बहाने लग जाते ।
आज आश्रम निवास का बारहवां दिन था । दिन के प्रथम प्रहर के पश्चात् कार्यवश वृद्ध तापसमुनि आश्रम के बाहर चले गए थे और मध्याह्नोपरान्त आने कह गए थे ।
मलया को लगा कि अब प्रसवकाल निकट है । इस आश्रम में कोई भी स्त्री नहीं है प्रसवकाल में सूतिकर्म कौन करेगा ? प्रसव के समय यदि मेरी मृत्यु हो जाएगी तो बालक का और पति का क्या होगा ? क्या पति का मिलाप नहीं होगा ? अथवा वे कभी बालक को नहीं देख पाएंगे ?
इन विचारों में उन्मज्जन- निमज्जन करती हुई मलयासुन्दरी कुटीर के एक पार्श्व में बैठ गयी। उसके नयन सजल हो गए थे ।
मध्याह्न बीत चुका था । तापसमुनि अभी पहुंचे नहीं थे । मलयासुन्दरी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी । वह उठी । उपवन में गई । इधर-उधर देखा । उसकी दृष्टि एक आकृति पर पड़ी। उसने देखा, वृद्ध तापस आ रहे हैं और उनके पीछे-पीछे अधेड़ उम्र की एक ग्रामीण औरत आ रही है ।
इतने दिनों के बाद मलया ने तीसरे मनुष्य का चेहरा देखा था । कुटीर में वे दो ही थे - एक तापस और दूसरी स्वयं । निकट आते ही तापस ने कहापुत्री ! कैसी हो ? मुझे आज प्रातःकाल से ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तेरा
महाबल मलयासुन्दरी
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