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________________ डाला होगा। ऐसे विचारों से व्यथित महाबलकुमार अत्यन्त तीव्र वेदना का अनुभव कर रहा था। उसे सहजीवन के अनेक संस्मरण याद आने लगे। प्रिया की एक-एक स्मृति से वह तिलमिला उठता। __महाबल ने निश्चय कर लिया, साथी के छूट जाने पर जीना व्यर्थ है। पुत्र की अनन्त व्यथा से महाराजा और महारानी भी व्यथित थे। पर वे हताश थे। उनके पास पुत्र को आश्वस्त करने का कोई उपाय नहीं था। वे बार-बार पुत्र को सांत्वना देते और अपने अविचारित कार्य की निन्दा करते। ... एक बार महाराजा और महारानी--दोनों महाबलकुमार के कक्ष में गए। वहां युवराज योगी की भांति विचारों में खोया हुआ उदासीन बैठा था। मातापिता ने उसे समझाने का प्रयत्न किया, पर व्यर्थ । युवराज मौन थे । उनकी आंखें सजल बन रही थीं। उस समय महामंत्री मुनिदत्त ने कक्ष में प्रवेश किया। उनके पीछे एक वृद्ध पुरुष था। महामंत्री ने महाराजा की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा-'महाराजश्री ! दक्षिण भारत के प्रख्यात निमित्तज्ञ आचार्य नेमीचरण आए हैं।'... ..महाराज सुरपाल खड़े हो गए । वहां उपस्थित सभी व्यक्ति खड़े हो गए। महाराजा ने आचार्य को ससम्मान आसन पर बैठने का निवेदन किया। महाराजा ने आचार्य के समक्ष हाथ जोड़कर पूछा-- 'महात्मन् ! आप इस नगरी में कब पधारे? _ 'कल ही मैंने नगर में प्रवेश किया है। एक श्रेष्ठी के प्रयोजनवश मुझे यहां आना पड़ा है।' .. महादेवी ने आचार्य से कहा—'महात्मन् ! हम अतुल वेदना भोग रहे हैं । लगता है, आप हमारे पुण्य से खिचे हुए यहां पधारे हैं।' आचार्य ने महादेवी को आशीर्वाद दिया। दो दिन से महाबल ने कुछ भी नहीं खाया-पीया था, इसलिए उसका शरीर मुरझा गया था। उसने आचार्य को नमस्कार कर कहा-'आचार्यदेव ! मैंने आपकी यशोगाथा सुनी है, किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का यह प्रथम अवसर है । आप कृपा कर मेरे एक प्रश्न का उत्तर दें।' आचार्य नेमीचरण बोले-'कुमारश्री ! आप अपने प्रश्न को मन में रखें, किन्तु मेरी परीक्षा करने के लिए आप अपने मन में दूसरा प्रश्न न उभारें।' वृद्ध निमित्तज्ञ की ओर महाबल देखने लगा। वृद्ध निमित्तज्ञ ने अपने थैले में से एक पाटी निकाली। उस पर अंक लिखे और गणित करते हुए बोले-'कुमारश्री ! आपने जो अंतिम प्रश्न सोचा है वह यह २३२ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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