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४४. पीड़ा का दावानल
महाराजा ने कनकावती को सीमा पार करने का आदेश दे दिया था । उन्हें अपनी भूल पर पश्चात्ताप हो रहा था । किन्तु इन सबसे पुत्र महाबल की चिंता कुछ भी हल्की नहीं हुई ।
दूसरे दिन दोनों सुभट को साथ लेकर दो सौ सैनिक उस वन प्रदेश की खाक छानने निकल पड़े जहां मलयासुन्दरी को छोड़ा गया था ।
छह दिन बीत गए । सभी सैनिक वनप्रदेश में छानबीन कर खाली हाथ लौट आए। कहीं उन्हें मलयासुन्दरी के अस्तित्व का पता नहीं चल सका । मलयासुन्दरी तापसमुनि के कुटीर में थी । किन्तु वह स्थल ऐसा था, जहां सहसा कोई पहुंच नहीं पाता था ।
दोनों सुभटों ने महाराजा से कहा - ' राजेश्वर ! हमने सारा वनप्रदेश छान डाला, युवराज्ञी का कहीं पता नहीं चला ।'
महाबल ने निराशा के स्वरों में कहा - 'मलया किसी हिंसक प्राणी का भोग बनी हो, ऐसा कोई चिह्न जान पड़ा ?'
'नहीं, युवराजश्री ! ऐसा कोई चिह्न दिखाई नहीं पड़ा । संभव है युवराज्ञी कहीं अन्यत्र चली गई हों ।'
महाराजा ने पूछा - ' उस वन में कोई पल्ली है ?"
'हां, महाराजा ! वहां तीन पल्लियां हैं और हमने तीनों में युवराज्ञी को ढूंढ़ा है । पर वहां भी कोई खोज-खबर नहीं मिली ।'
महाबलकुमार के मन में जो आशा अंकुरित हुई थी, वह असमय ही नष्ट हो गई।
एक पवित्र नारी पर हुए अन्याय से उसका चित्त अत्यन्त पीड़ित और व्यथित हो रहा था । साथ-ही-साथ श्रेष्ठतम प्रियतमा का वियोग भी उन्हें पीड़ित कर रहा था । गर्भ के अन्तिम दिन थे ऐसे संकट की कल्पना कभी नहीं की जा सकती थी ऐसे निर्जन और भयंकर वन में वह किसी भी प्रकार जीवित नहीं रह सकती कोई सिंह, बाघ या अन्य हिंस्र पशु ने उसे खा
महाबल मलयासुन्दरी २३१
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