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________________ एक रक्षक तत्काल दौड़ा-दौड़ा गया। विनोदा और चन्द्रसेना दोनों रथ से नीचे उतरे । विनोदा के हाथ में एक करंडक था । उसमें नये फूलों की एक माला थी । उसकी सुगंध चारों ओर महक रही थी । चन्द्रसेना विनोदा के साथ सीढ़ियां चढ़ने लगी। इतने में ही सामान्य धोती पहने हुए, धोती के एक पल्ले को कंधे पर डाले हुए आर्य सुशर्मा आये और बोले- 'देवी की जय हो । आप स्वस्थ तो हैं न ?” चन्द्रसेना ने प्रसन्न दृष्टि से आर्य सुशर्मा की ओर देखकर कहा - 'आपके दर्शन पाकर मेरे चित्र की प्रसन्नता शतगुणित हो गई है ।' सुशर्मा पूर्ण आदर और सत्कार के साथ देवी चन्द्रसेना और विनोदा को अपने कक्ष में ले गया । चन्द्रसेना ने देखा कि चित्रकार का कक्ष अव्यवस्थित रूप से पड़ा है । कहीं कुछ और कहीं कुछ । कहीं रंग के कटोरे पड़े हैं तो कहीं तुलिकाएं बिखरी पड़ी हैं । कहीं कार्पास के चित्रपट हैं तो कहीं जल से भरे पात्र पड़े हैं। वहां कुछेक आसन पड़े थे । आर्य सुशर्मा ने दो आसनों को साफ करते हुए कहा - 'देवी ! आप यहां बैठें !" चन्द्रसेना बोली- 'पहले मैं कलाकार का अभिवादन तो कर लूं ।' यह कहकर उसने विनोदा के हाथ से करंडक लिया और फूल की माला को दोनों हाथ से उठा, सामने खड़े चित्रकार के गले में पहना दी । चित्रकार ने कहा - 'देवी ! स्वागत तो मुझे आपका करना चाहिए था, किन्तु आपके आकस्मिक आगमन के कारण मैं कुछ भी पूर्व तैयारी नहीं कर सका'' इसलिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं | अब आप इस आसन पर बैठें ।' 'प्रिय सुशर्मा ! मैं तो यहां आपकी कला का दर्शन करने आयी हूं ।' 'मैं धन्य हुआ। मुझे आशा तो थी कि आप यहां अवश्य ही आएंगी ।' 'ऐसी आशा का कारण?' मुसकराते हुए चन्द्रसेना ने पूछा 1 'एक धुनी और गरीब कलाकार के पास ऐसी ऐश्वर्यशालिनी देवी का आगमन · ! ' बीच में ही चन्द्रसेना बोल पड़ी - 'कलाकार संसार का सर्वश्रेष्ठ धनी होता है । उसके चरणों में संसार की भौतिक संपत्ति लुटती रहती है । आपने ही तो कल मुझे कहा था कि कला का मूल्य धन से नहीं आंका जा सकता" "मुझे ज्ञात हुआ कि कला का मूल्य केवल भावना से होता है मैं आयी हूं भावना का स्वर्णथाल लेकर ।' 'देवी ! आपका हृदय उदार है अब मैं आपको कुछेक चित्र बताता हूं'कहकर कलाकार उठा । Jain Education International महाबल मलयासुन्दरी १५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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