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________________ कौमशास्त्र का अध्ययन करने के लिए आने वाले युवकों को वह बार-बार कहती -- 'कामशास्त्र विलास की मर्यादा का शास्त्र है । यह यौवन को यथावत् बनाए रखने की कला है । राष्ट्र के लिए उत्तम प्रजा का निर्माण करने वाला शास्त्र है'' यह शास्त्र केवल शरीर की भूख मिटाने के लिए और लालसा का पोषण करने के लिए नहीं है । जो ऐसा करते हैं, वे बरबाद हो जाते हैं ।' चन्द्रसेना अपने रूप और यौवन के प्रति पूर्ण सजग थी और वह खान-पान के संयम से अपने को स्वस्थ बनाए रखती थी। अपने इस काम में कभी-कभी मैरेये का पान भी करती थी, फिर भी अमर्यादित नहीं बनती थी । आज तक का उसका अनुभव था कि उसके एक इशारे पर अनेक युवक मरमिटने को तैयार रहते थे । उसके सहवास के लिए पुरुष तन, मन और धन से उसके चरणों में न्योछावर थे। ऐसा एक भी प्रसंग नहीं आया, जिसमें उसने कोई वस्तु मांगी हो और उसे वह न मिली हो । किन्तु आज एक चित्रकार आया और उसने निरावरण चित्रांकन करने से इनकार कर दिया । वह पागल या अबूझ था ...अरे, भला निरावरण काया का अंकन करना क्या दोष है ? यदि दोष है तो जन्म लेना ही दोषपूर्ण है । प्रत्येक बच्चा निरावरण ही तो जन्म लेता है । क्या नर-नारी का यथार्थ सौन्दर्य वस्त्रों में है ? इसके अंकन से कला को कौन-सा कलंक लगता था ? एक पत्थर की प्रतिमा का अंकन किया जा सकता है सदा नग्न रहने वाले पशु-पक्षियों को चित्रित किया जा सकता है तो फिर मनुष्य का निरावरण चित्रांकन क्यों नहीं किया जा सकता ? इस प्रकार अनेक संकल्प - विकल्पों में उन्मज्जन- निमज्जन करती हुई चन्द्रसेना ने मन-ही-मन यह निश्चय किया कि वह सुशर्मा को समझाने का प्रयत्न करेगी । जो व्यक्ति धन के लालच में आकर नहीं झुकता, वह रूप और यौवन की मादकता के आगे नतमस्तक हो ही जाता है । अन्त में मुझे यही करना होगा । राज्य के अतिथिगृह में जाकर मुझे सुशर्मा को समझाना होगा । ऐसा ही हुआ । दूसरे दिन प्रथम प्रहर की समाप्ति से पूर्व ही चन्द्र सेना का स्वर्णजटित रथ afafe के प्रांगण में आ रुका । affrगृह के रक्षक दौड़े दौड़े रथ के पास आए । सब आश्चर्य चकित थे कि देवी चन्द्रसेना अतिथिगृह में कैसे ? विनोदा ने एक अंगरक्षक से पूछा- 'आर्य सुशर्मा यहीं हैं ?" 'हां' क्या उनको बुलाऊं ?" 'नहीं, उनको बता दो कि देवी चन्द्रसेना आयी हैं।' विनोदा ने १४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only कहा i www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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