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३. निरावरण रूप
नीरव रात्रि। चन्द्रसेना शय्या पर जा सो गई। वह सुशर्मा के विचारों में खो गई। चन्द्रसेना को अपने रूप, वैभव और यौवन पर गर्व था। ऐसे गर्व से बचना सर्वश्रेष्ठ माना जा सकता है, परन्तु जो इन सारी वस्तुओं से संपन्न हो और उसका गर्व करे, तो वह मानवीय स्वभाव की दृष्टि से अनुचित नहीं कहा जा सकता। ___ उस समय संपूर्ण दक्षिण भारत में चन्द्रसेना के रूप-यौवन की बहार मालती पुष्प के सौरभ की भांति प्रसृत हो रही थी। चन्द्रसेना को देखने के लिए दूर-दूर से रूप और यौवन के गर्व से मत्त युवक आते थे। चन्द्रसेना के यौवन की माधुरी का रसास्वादन करने के लिए तरुण, प्रौढ़ और वृद्ध-सभी तरसते रहते थे। इतना ही नहीं, वे चन्द्रसेना को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ण और रत्नों की बौछार करते थे । इतना सब कुछ होने पर भी चन्द्रसेना ने अपनी मां की बात को हृदय में अंकित कर रखा था। लगभग नौ वर्ष पूर्व जब चन्द्रसेना की मां मृत्यु-शय्या पर अंतिम सांसें ले रही थी, तब उसने अपनी पुत्री चन्द्रसेना को पास बुलाया, उसके मस्तक पर हाथ रखकर कहा---'पुत्री ! हमारा व्यवसाय सुखद भी है और दुःखद भी है । जब तक रूप और यौवन की बहार रहती है तब तक ही लोग धन की बौछार करते हैं और जब रूप और यौवन अस्त हो जाता है तब कोई भी ऊंची नजर कर हमारी ओर नहीं देखता । इस धंधे में यदि स्त्री धैर्य नहीं रखती है तो वह अपने रूप और यौवन को टिकाए नहीं रख सकती। यदि वह रूप और यौवन के उपभोग पर नियन्त्रण रख सके तो उसका यौवन चिरकाल तक बना रह सकता है। याद रखना, पुरुषों के मायाजाल में कभी मत फंसना । योग्य पुरुष के साथ ही मर्यादित मैत्री स्थापित करना।'
माता की यह शिक्षा चन्द्रसेना के हृदय पर अमिट छाप छोड़ गई थी । वह इसका पूरा पालन करती थी। वह गणिका थी। उसके भवन में कामशास्त्र का विधिवत् शिक्षण दिया जाता था । उसके पास पचीस सुन्दर तरुण युवतियां था, जो कामशास्त्र के अध्येताओं का सहयोग करती थीं।
महाबल मलयासुन्दरी १३
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