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________________ इसलिए मैं तेरा वध न करवाकर,आज्ञा देता हूं कि तू तत्काल यहां से निकल जा। कनकावती तत्काल खंड से बाहर चली गई । युवराज दोनों हाथों से मुंह ढककर एक ओर बैठ गया। महाराजा ने कहा-'बेटा ! जो होना था वह हो गया। अब तू धैर्य रख । मैं कोई योग्य राजकन्या के साथ...' बीच में ही महाबल बोला-पिताश्री ! मेरा विवाह एक बार हो चुका है। मैं फिर विवाह नहीं करूंगा। जो सुभट मलया के वध के लिए गए थे, उन्हें बुलाएं। जहां उन्होंने मलया का वध किया है, मैं उस स्थान को वंदना करने जाऊंगा।' दोनों सुभट आ गए। युवराज ने कहा-'तुमने जिस स्थल पर मलया का वध किया है, वह स्थान मुझे दिखाओ।' दोनों सुभट पल भर के लिए कांप उठे। महाराजा ने कहा-'तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुमने तो मात्र राजाज्ञा का पालन किया है । संकोच किए बिना स्थल बता दो।' दोनों सुभट बोले-'कृपावतार ! क्षमा करें। हमने आपकी आज्ञा का पूरा पालन नहीं किया है।' युवराज चौंका। तत्काल खड़ा होकर बोला-'तो क्या किया?' 'युवराजश्री ! देवी को देखकर हमें प्रतीत हुआ कि देवी निर्दोष हैं, पवित्र हैं । महाराजा को ही दृष्टि-दोष हुआ है, इसलिए हमने देवी का वध नहीं किया। उन्हें 'छिन्न' नाम के वन प्रदेश में छोड़कर आ गए।' सुभटों ने कहा। युवराज ने तत्काल प्रसन्न स्वरों में कहा-'ओह ! तुमने मुझ पर बड़े से बड़ा उपकार किया है।' ____ कनकावती ने धीमे से कहा-'युवराज ! मेरे से बोला नहीं जाता । मेरे कंठ अवरुद्ध हो गए हैं। मैं भूख की असह्य पीड़ा को सहन नहीं कर सकती।' तत्काल युवराज ने दासी से दूध और कुछ खाद्य लाने के लिए कहा। फिर महाप्रतिहार की ओर देखकर युवराज बोला-'महाराजाऔर महादेवी को यहां तत्काल बुला लाओ।' महाप्रतिहार चला गया। थोड़े समय में ही दासी दूध और खाद्य सामग्री ले आयी। कनकावती ने भूख शांत की। इसी समय महाराजा और महादेवी वहां आ पहुंचे। युवराज महाबल ने कहा-'पिताश्री ! आपके अन्याय का तथा मलयासुन्दरी की निर्दोषता का यदि महाबल मलयासुन्दरी २२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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