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के साथ विवाह कर लें । मेरे स्वामी धैर्य न खोएं और मेरी इस अवस्था के लिए किसी पर दोषारोपण न करें। यह मेरे अपने ही कर्मों का फल है । अब मैं उस सामने वाले वृक्ष के नीचे बैठकर अपने इष्ट का स्मरण करती हूं और आप बिना किसी संकोच के मेरे पूज्य श्वसुर की आज्ञा का पालन करें ।'
यह कहती हुई मलया मंथरगति से उस वृक्ष के नीचे गई, सबसे क्षमायाचना कर किसी को दोष न देती हुई, अपने ही कर्मों का परिणाम मानती हुई नवकार महामंत्र का स्मरण करने लगी ।
दोनों सुभट दुविधा में फंस गए। एक बोला- भाई ! लगता है कि महाराजा ने भयंकर भूल की है । युवराज्ञी बालक की भांति निर्दोष है और निष्कलंक है । इसका वध कर हम दो प्राणियों के वध का पाप क्यों लें !'
'हम जवाब दे देंगे कि आपकी आज्ञा का पालन कर दिया गया है। एक छोटी और तुच्छ नौकरी के लिए हम इतना बड़ा पाप क्यों करें ?”
'तो अब हम युवराज्ञी को कहीं सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दें, अन्यथा रात होते ही हिंसक पशुओं का उपद्रव बढ़ जाएगा । हम दोनों यहां नये हैं । हमें सुरक्षित स्थान की जानकारी भी नहीं है । अतः हमारे लिए यही श्रेयस्कर है ि हम युवराज्ञी को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दें ।'
दोनों सुभटों ने यह निश्चय कर ध्यानमग्न बैठी युवराज्ञी की ओर देखा । एक सुभट बोला- 'जाने से पहले हमें युवराज्ञी को यह बता देना है कि वे कहीं सुरक्षित स्थान की ओर चली जाएं ।'
दूसरा सुभट इस बात के लिए सहमत हो गया। दोनों युवराज्ञी पास गए और बोले— (देवी
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नवकार मंत्र का जाप पूरा कर मलया ने दोनों की ओर देखा और कहा- 'भाई ! मैं तैयार हूं मेरे इष्ट-स्मरण में बाधा क्यों डाल रहे हो ?"
'देवी ! हमें ऐसा लग रहा है कि आपके वध की आज्ञा देकर महाराजा ने भयंकर अपराध किया है. इसलिए हम आपका वध किए बिना ही लौट रहे हैं । आपको केवल इतनी ही सूचना देनी है कि आप सूर्यास्त से पहले कहीं सुरक्षित स्थान में पहुंच जाएं ।'
मलया अवाक् बनकर दोनों सुभटों को देखने लगी । वह कुछ नहीं बोली । उसने मन ही मन सोचा - ओह ! अभी पूर्वाजित पुण्यकर्म का भोग शेष है, अन्यथा ये मुझे जीवित क्यों छोड़ते ?
दोनों सुभट मलया को नमस्कार कर रथ में बैठ अपने गंतव्य की ओर चले
गए ।
मलया वृक्ष के नीचे बैठी थी । वह भी खड़ी हुई । उसे ज्ञान ही नहीं था कि इस भयंकर वन- प्रदेश में कहीं सुरक्षित स्थान हो सकता है । वह जलाशय या
२२२ महाबल मलयासुन्दरी
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