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________________ विचारों में उलझ गई । एक विचार का वह समाधान पाती तो दूसरा विचार उभरता और नयी समस्या सामने आ जाती। मुझे कहां भेजा जा रहा है ? केवल महाराजा ने ही मुझे जाने के लिए कहा था । महादेवी कहां थी ? अनेक विचारों के आवर्त्त में फंसी हुई मलया आकुल-व्याकुल हो रही थी । जब मनुष्य प्रश्न और विचार की तरंगों में खो जाता है तब उसकी मनोव्यथा अकथ्य होती है । तेजस्वी अश्वों वाला वह रथ वायुवेग से चल रहा था । वह कहीं नहीं रुका । चारों ओर घोर वन । पूर्वाकाश में लालिमा छा गई । सूर्योदय भी हो गया। दोनों सुभट मौन थे । वे रथ को संभाले हुए । वे निर्जीव प्रतिमा से लग रहे थे । अंत में मलया ने पूछा - 'मुझे कहां ले जा रहे हो ?' सुभट मौन रहे । उत्तर नहीं दिया । मलया ने सोचा -- क्या मैंने जो कहा वह इन्हें सुनाई नहीं दिया ? मलया ने उच्च स्वर में कहा—'भाई ! रथ किस ओर जा रहा है ? जाने का मूल प्रयोजन क्या है ?" मलया के हृदय में एक नयी शंका उत्पन्न हो गई। मुझे कहां ले जा रहे हैं ? इस स्थिति में प्रवास सर्वथा निषिद्ध होता है, फिर भी महाराज ने मुझे क्यों भेजा ? यदि वे मुझे मेरे पीहर की ओर भेजते तो चंद्रावती नगरी तो दूसरी दिशा में है... मलया कुछ भी निश्चय नहीं कर सकी । धीरे-धीरे दिन का दूसरा प्रहर भी पूरा हो गया । रथ की गति कुछ मंद हुई । मलया ने रथ का परदा कुछ ऊंचा कर देखा कि चारों ओर घोर वन है । फिर मलया ने सोचा- इस घनघोर वन में मुझे कहां ले जा रहे हैं ? क्या पल्लीपति से युद्ध करने के लिए गए हुए मेरे पतिदेव महाबल की आज्ञा से ऐसा किया जा रहा है ? नहीं-नही, महाबल ऐसी आज्ञा नहीं दे सकते । तो फिर ? मलया इस प्रकार अनन्त चिन्ताओं का भार ढोती हुई भयंकर प्रवास कर रही थी और उधर महाबलकुमार दुर्दान्त पल्लीपति पर विजय प्राप्त कर, सबको शरणागत कर प्रसन्न हो रहे थे । पल्लीपति के सारे साथी महाबल के चरणों में आ गिरे और पल्लीपति पलायन कर गया । Jain Education International महाबल मलयासुन्दरी २१६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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