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________________ कर रही है ।' 'क्या ? यह कभी नहीं हो सकता!' कहकर महाराजा खड़ हो गये । कनकावती ने तत्काल कहा - 'मुझे विश्वास था कि आप मेरी बात नहीं मानेंगे किन्तु मैंने यह सारा प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखा है - दो दिन से मैं नींद का बहाना कर सो जाती हूं और फिर जो कुछ होता है, वह देखती हूं ।' ' किन्तु मलयासुंदरी तो एक धर्मनिष्ठ और संस्कारी... बीच में ही कनकावती बोल पड़ी - 'मेरी बात पर विश्वास करने का एक सरल उपाय है ।' कौन-सा उपाय ?" 'आपकी पुत्रवधू मध्यरात्रि के समय शयनकक्ष के वातायन में राक्षसी का रूप बनाकर घूमती है और हाथों की मुट्ठियों से चारों ओर कुछ फेंकती है। आप रात को कहीं छिपकर यह सारा दृश्य देख सकते हैं । यहदृश्य केवल आपको ही दीखेगा, दूसरों को नहीं ।' 'ओह कनकावती ! यदि यह बात असत्य हुई तो..." 'महाराज ! आपकी पुत्रवधू को मैं अपनी पुत्री के समान मानती हूं मेरा उस पर अपार स्नेह है आपके पुत्र ने मेरा कितना उपकार किया है, फिर मैं असत्य क्यों कहूंगी ! फिर भी यदि आपको विश्वान न हो, मेरी बात असत्य निकले तो आप मेरा सिर मुंडवाकर गधे पर बिठाकर सारे नगर में घुमाएं और फिर किस वन- प्रदेश में छोड़ दें ।' कुछ क्षणों तक चिन्तन करने के पश्चात् महाराजा ने कहा - 'आपने यह बात और किसी से तो नहीं कही है ?" 'नहीं महाराज ! नहीं" क्या ऐसी बात किसी को कही जा सकती है ?' ‘ठीक है । आज रात्रि में मैं यह दृश्य देखूंगा । आप यह बात मन में ही रखें ।' महाराजा ने कहा । वैर की तृप्ति के लिए छोड़ा गया विषबाण राजा को लग चुका था । अत्यन्त प्रसन्न होती हुई कनकावती वहां से अपने निवास स्थान पर आयी और राक्षसी के रूप-निर्माण के अनुरूप सामग्री लाने के लिए बाजार की ओर चल पड़ी । कनकावती का हृदय आज आनन्द से उछल रहा था । आज उसके बैर की तृप्ति होने वाली थी । उसके हृदय का दंश आज शांत होने वाला था । उसने सोचा - मलया की बरबादी हो जाने पर उसकी प्रतिशोध की चिता ठंडी हो जाएगी । हा को इस घटना की कल्पना तक नहीं थी । उसे गए बीस दिन हो २१४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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