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राक्षसी आती है। कल रात मैं उस वातायन में खड़ी थी। मैं जागती रही। मैंने देखा और उसे ललकारा । वह चली गयी। परन्तु वह लौटकर न आए, इसलिए मैं एक उपाय करना चाहती हूं।'
मलया ने प्रश्नभरी दृष्टि से कनकावती की ओर देखा।
कनकावती बोली-राक्षसी के सामने मैं भी राक्षसी का रूप धारण कर उसे ललकारूं तो संभव है वह भयभीत होकर फिर यहां कभी आने का साहस न करे। मैं कुछ मंत्र-तंत्र भी जानती हूं। यदि तुझे कोई आपत्ति न हो तो मैं यह करना चाहती हूं।'
मलया ने सहज स्वरों में कहा-'मां! आप मेरी बहुत देख-भाल, सारसंभाल कर रही हैं । मेरे हित के लिए आप जो करना चाहें, करें।'
'तो मैं कुछ ही समय में लौट आती हूं। कुछ साधन जुटाने पड़ेंगे।' कहती हुई कनकावती खड़ी हुई और मलया के मस्तक पर हाथ रख, बाहर चली गयी।
मलया को बरबाद करने का उसे यह स्वर्णिम अवसर मिल गया। वह अपने कक्ष की ओर नहीं गई। वह महाराजा सुरपाल के कक्ष की तरफ चली।
महाराजा को नमन कर खड़ी रह गयी। महाराजा ने पूछा-'युवाराज्ञी प्रसन्न रहती हैं न?
'हां, महाराज !.."किन्तु यदि आपकी दृष्टि कठोर न हो तो मैं एक हित की बात कहना चाहती हूं।'
'बोलो, जो कुछ कहना चाहो, नि:शंक होकर कहो।'
कनकावती बोली--'महाराजश्री ! नगरी में महामारी फैल रही है। हजारों उपाय कर लेने पर भी वह काबू में नहीं आ रही है। इसका कारण कुछ और है। कोई योजनापूर्वक इसे संचालित कर रहा है।'
'योजनापूर्वक कोई कर रहा है ? यह समझ में नहीं आया।' ___ 'महाराज ! ऐसा नीच कार्य करने वाला मंत्र-तंत्र का जानकार होता है और राक्षसी का रूप धारण कर रोग फैलाता है । गत दो रात्रियों से मैं यह सारा प्रत्यक्ष देख रही हूं।' ___ 'आप क्या कह रही हैं ? कौन है वह ? ऐसा करने का प्रयोजन ही क्या है ? निर्दोष प्रजा का प्राण लूटने वाला कौन है वह दुष्ट ?'
'कृपावतार ! मैं आपके समक्ष उसका नाम लेने में कांपती हूँ.. किन्तु राजपरिवार और पौरजनों की हितकामना से प्रेरित होकर मैं आपके पास उपस्थित हुई हूं।'
'आप बिना संकोच किए सारी बात स्पष्ट कहें।' 'कृपावतार ! यह सारा कार्य दूसरा कोई नहीं, आपकी पुत्रवधू मलयासुंदरी
महाबल मलयासुन्दरी २१३
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