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________________ ४०. हृदय का दंश विचित्र है यह संसार ! जहां अनेक बार चतुर और राजनीतिकुशल व्यक्ति भी मार खा जाते हैं, तो वहां महाबल जैसे सहृदय और परोपकारी व्यक्ति यदि मार खा जाए तो इसमें कोई नयी बात नहीं है। वह जानता था कि रानी कनकावती के मन में मलयासुन्दरी के प्रति विष भरा है और उसके कारण ही मलया को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा था। इतना ही नहीं, वह यह भी जानता था कि जो नारी अपनी कूल-मर्यादा और शील का रक्षण भी नहीं कर पा रही है, उसे अपने ही राजभवन के एक कक्ष में रहने की अनुमति देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, फिर भी महाबल ने उसे आश्रय दिया। उसने समझ लिया कि इस नारी ने लोभसार चोर की सारी संपत्ति को संभलाकर अपने दोषों का प्रायश्चित कर लिया है। मलया ने भी यही सोचा था। दिन बीतने लगे। मलया का गर्भ बढ़ने लगा। सात महीने पूरे हो गए। महाबल भी राज्य के कार्यों में व्यस्त हो गया। कनकावती ने राजभवन में जाना-आना बढ़ाया और जब भी वह आती तब मलया के प्रति अटूट प्रेम का दिखावा करती। पृथ्वीस्थानपुर में अचानक महामारी का प्रकोप हुआ। एक दूसरा गंभीर प्रश्न भी पूरे राज्य के समक्ष उपस्थित हो गया। नगर से पचीस कोस की दूरी पर, राज्य की सीमा के अन्तर्गत, एक प्रदेश में डाकू पल्लीपति ने अपना सिर उठाया। वह यदा-कदा अनेक गांवों में डाका डालने लगा और राज्य के पूरे रक्षकवर्ग को परेशानी में डाल दिया। इस पल्लीपति डाकू को पकड़ने के लिए राज्य का सेनाध्यक्ष अपने पांच सौ सैनिकों के साथ गया था, परन्तु बुरी तरह हारकर खाली हाथ लौटा। महाराजा सुरपाल और उनका मंत्रीमंडल बहुत चिंतित हो उठा। उन्हें आशंका थी कि यह अ-भीत डाकू कभी-न-कभी पृथ्वीस्थानपुर के बाजार को लूटेगा। इन संवादों से राज्य की सारी जनता त्रस्त थी और वह इतस्ततः अव्यवस्थित २१०. महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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