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महाराजा और महादेवी-दोनों जनसमूह को नमस्कार करते-करते अग्निकुण्ड की ओर आगे बढ़ रहे थे। वे मन में नमस्कार महामंत्र और इष्टदेव का स्मरण कर रहे थे।
सारी जनता के नयन अश्रुपूरित थे। बड़े-बूढ़े, छोटे बच्चे, नारी-पुरुष-सब रुदन कर रहे थे।
इतने में ही वह युवक हांफता हुआ वहां पहुंचा और ऊंचे शब्दों में चिल्लाया---'महाराजा को रोको 'युवराश्री मिल गए हैं।'
महाप्रतिहार और महामंत्री ने युवक सैनिक की ओर देखा ।
वे दोनों आगे बढ़े और महाराजा से कहा-'कृपावतार! महादेवी को रोकें, युवराजश्री मिल गए हैं।'
सब आश्चर्यचकित रह गए । महाराजा और महादेवी वहीं खड़े रह गए। चिता प्रज्वलित हो चुकी थी। उसकी लपटें आकाश को छू रही थीं। महाराजा ने पूछा-'कहां हैं युवराज ?'
साहसी सैनिक बोला-'महाराजश्री ! यहां से आधे कोस की दूरी पर एक वट-वृक्ष है । वहां युवराजश्री एक शाखा से बंधे हुए औंधे मुंह लटक रहे हैं । वे नागपाश के बंधन में बंधे हुए हैं । आप सबसे पहले युवराजश्री को बन्धनमुक्त करने का उपाय करें, फिर आगे की बात पूछे।' ।
नवयुवक की बात सुनकर वहां उपस्थित मलयासुन्दरी अवाक रह गई।
महाराजा, सेनाध्यक्ष, महाप्रतिहार तथा कुछ सैनिक अश्वों पर आरूढ़ होकर वट-वृक्ष की ओर चले । साथ में वह सैनिक भी चला।
जनता का कुतूहल भी बढ़ चुका था । वे भी विभिन्न समूहों में विभक्त होकर उसी दिशा में चल पड़े।
महादेवी प्रिय पुत्र की प्रतीक्षा करने लगी। उसकी आंखें पुत्र को देखने के लिए तरस रही थीं।
मलयासुन्दरी का मन प्रिय-मिलन के लिए तड़प रहा था। सभी के हृदय आतुर थे। विषाद के क्षण हर्ष में परिवर्तित हो गए।
२०० महाबल मलयासुन्दरी
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