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________________ चौंककर चिल्लाया- 'बाप रे बाप !' 'क्या है ? सिंह, बाथ या अजगर ?' 'नहीं, नहीं । देखो ! सामने कोई औंधा लटक रहा है। एक नहीं, दो हैं।' सबने वट-वृक्ष की ओर देखा। सबसे पहले उनकी दृष्टि लोभसार के शव की ओर गई। वह निश्चेतन लटक रहा था। सब चौंके । आगे बढ़ने का साहस टूट गया । एक सैनिक ने कहा-आगे चलो, देखें तो सही क्या मामला है ?' सबने कहा--'अरे, भूत होंगे।' वह बोला-'दिन में भूत बेचारे कहां से आयेंगे ?' इतना कहकर वह साहसी सैनिक आगे बढ़ा। शेष सब वृक्ष से दूर ही खड़े रह गए। साहसी सैनिक ने लोभसार के शव को देखा। वह निर्जीव लटक रहा था। फिर उसकी दृष्टि दूसरे की तरफ गई और वहां अटक गई। वह निकट गया, देखा। महाबल आंखें बंद कर नवकार महामंत्र का स्मरण कर रहा था। उसके होंठ हिल रहे थे। ____साहसी सैनिक चिल्ला उठा-'युवराजश्री ! युवराजश्री ! आपकी यह दशा किसने की ?' युवराज महाबल ने आंखें खोली. ''अत्यन्त मंद स्वर में बोला-'मेरे पैर नागपाश के बंधन से वट-वृक्ष की शाखा से बंधे हुए हैं। यह पाश ऐसे नहीं खुलेगा । अग्निशलाक से खुल सकेगा। वह सैनिक बोला---'युवराजश्री ! आपके माता-पिता आपके वियोग के कारण आत्मदाह करने, अग्नि में झंझापात करने नगर के बाहर चले गए हैं। मैं भागता-भागता जा रहा हूं, आपके मिलन की खबर देकर उनके प्राणों की रक्षा करता हूं। फिर मैं शीघ्र ही आकर आपको बंधनमुक्त कर दूंगा । तब तक आप कुछ और कष्ट सहन करें।' 'हां, भाई ! तू शीघ्रता कर । माता-पिता को समाचार दे । तू मेरी चिन्ता मत कर। यदि तू पहले बंधन खोलने में समय लगाएगा तो संभव है माता-पिता प्राण-विसर्जन कर बैठें। यह अनर्थ हो जाएगा । तू जा, जल्दी जा और उनके प्राणों की रक्षा कर।' _ 'अब आप निश्चित रहें'---यह कहकर सैनिक वहां से दौड़ा। उसके सारे साथी भय से कांपते हुए वट-वृक्ष से दूर ही खड़े रह गये थे। उस साहसी सैनिक ने उन्हें कहा---'चलो, दौड़ो, महाराजा-महादेवी को शुभ समाचार देकर उनके प्राण बचाएं । युवराज मिल गए हैं।' साहसी सैनिक तेजी से भागा जा रहा था। सभी साथी बहुत दूर पीछे 'रह गए थे। वह एक ही धुन में दौड़ रहा था। और वह जब नगर के बाहर पहुंच रहा था तब अपार भीड़ के बीच महाबल मलयासुन्दरी १६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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