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औंधे मुंह लटकता हुआ महाबल अत्यन्त व्यथा का अनुभव कर रहा था। उसने नागपाश को तोड़ने का एक अवसर सूर्योदय के समय प्राप्त कर लिया था । महाबल के दोनों हाथों पर परिवेष्ठित नाग की पूंछ हिलते-डुलते उसके मुंह के पास आ गई थी और तब महाबल ने तत्काल उस पूंछ को दांतों तले दबा दी थी। इससे नाग विचलित हो उठा। उसका बंधन शिथिल हो गया और वह नाग नीचे लटक गया। इतने में ही महाबल ने उस पूंछ को छोड़ दिया । नाग धड़ाम से जमीन पर गिरा और तीव्र व्यथा का अनुभव करने लगा। कुछ ही क्षणों में वह अदृश्य हो गया। महाबल के दोनों हाथ नागपाश के बंधन से मुक्त हो गए थे। किन्तु पैरों का नागपाश ज्यों का त्यों था। वहां तक हाथों का पहुंचना शक्य नहीं था।
जैसे-जैसे सूर्य तपने लगा, महाबल भूख और प्यास से आकुल होने लगा। भूख से भी अधिक पीड़ा होती है प्यास की। किन्तु ऐसे निर्जन स्थान में कौन आए और कौन महाबल को मुक्त करे !
कर्म का परिपाक विचित्र होता है। महाबल तीव्रतम व्यथा का अनुभव कर रहा था। वह उसे अपने ही कर्म का विपाक मानकर धैर्यपूर्वक सह रहा था। उसका मन जिनेश्वर देव के शासन और नमस्कार महामंत्र की परिधि में क्रीड़ा कर रहा था। वह समझता था कि जैसे व्यथा मनुष्य के चित्त में विचलन पैदा करती है, वैसे ही वह मनुष्य को सद्विचारों की ओर भी प्रस्थित करती है। वह यह भी जानता था कि जो जन्मता है वह अवश्य ही मरता है। और जब मृत्यु सामने खड़ी होती है तब मनुष्य को अधिक से अधिक स्वस्थ मन से मृत्यु का आलिंगन करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
इन विचारों से ओतप्रोत महाबलकुमार ताप, तृषा और क्षुधा की परवाह किए बिना और अधिक स्थिरता से महामंत्र के जाप में तल्लीन हो गया। उसका मन सभी संसारी संबंधों को तोड़कर एकमात्र नमस्कार महामंत्र में तल्लीन हो चुका था। वह मानता था कि अतिप्रिय वस्तु व्यक्ति के मन में मृत्यु के प्रति भय पैदा कर देती है और तब व्यक्ति आसक्ति से मूढ़ होकर और अधिक रच-पच जाता है।
और तीसरे प्रहर की अंतिम घटिका के समय कर्मनट का अट्टहास रुक गया, उसकी लीला ने एक नया मोड़ लिया। __ सैनिक वन-प्रदेश में घूम रहे थे । अलंबादि के पर्वत आज खोज के मुख्यस्थल बन रहे थे। दस-बारह सैनिकों की एक टोली सीधे रास्ते से न जाकर, वक्रमार्ग से खोज में चल रही थी । उनकी पगडंडी भाग्यवश उसी वट-वृक्ष की ओर आ रही थी। वे सभी सैनिक पगडंडी पर पैर बढ़ाते जा रहे थे और चारों ओर देख रहे थे। अचानक एक सैनिक की दृष्टि वट-वृक्ष की ओर गई और वह
१६८ महाबल मलयासुन्दरी
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