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________________ रहने का निर्देश दिया। महाबल खड़ा रह गया। योगी ने महाबल को भी मंत्रपूत किया और आकाश की ओर देखा। फिर उसने आंखें मंदकर मंत्रोच्चारण प्रारम्भ किया। एक-एक मंत्र के अन्त में वह अग्नि में घृत की आहुति देता और उस समय शव कुछ ऊपर उठता और पुनः नीचे गिर पड़ता। इस प्रकार दो घटिका बीत गईं और जिस नक्षत्र के योग में यह क्रिया सिद्ध करनी थी, उस नक्षत्र की ओर दृष्टि कर योगी सुवर्ण-पुरुष की सिद्धि का मुख्य मंत्र बोलने लगा। . शव बार-बार उछलने लगा। योगी के मंत्रोच्चारण का घेरा सघन होता गया। जैसे-जैसे मंत्रोच्चारण का घेरा सघन होता गया, वैसे-वैसे अग्निकुंड की ज्वाला तीव्र होती गई। __और स्वर्णपुरुष की सिद्धि के लिए शव को अग्निकुण्ड में हुत करने की घड़ी निकट आ गई। - महावल आश्चर्यचकित होता हुआ कभी उछलते हुए शव की ओर देख रहा था और कभी योगी की मुद्राओं को देख रहा था। उसे अब पूरा विश्वास हो रहा था कि योगी का कार्य सिद्ध होगा। किन्तु अनन्त को मथने वाला मनुष्य आखिर वामन ही तो होता है...। अचानक आकाश में भयंकर शब्द होने लगा। महाबल ने उस शब्द को स्पष्ट रूप से सुना--'योगी ! मैंने तेरी अविधि के लिए तुझे एक बार क्षमा दी है परन्तु आज मैं तुझे क्षमा नहीं कर सकता 'यह शव अपवित्र है और अपवित्र होने के कारण अयोग्य है।' योगी कांप उठा''वह कुछ कहे, उससे पूर्व ही उसका शरीर ऊपर उठा और अग्निकुण्ड में जा गिरा। महाबल अवाक् रह गया । अब क्या करे? शव भी उड़कर चला गया था... महाबल ने सोचा-शव तो अखंड था, फिर भी यह कैसे हुआ.''इसमें कुछ अपवित्रता होगी? महाबल इस प्रश्न का समाधान ढूंढ़े, इतने में ही उसका शरीर भी ऊपर उठा और उसके कानों से आवाज टकराई--'नौजवान ! साधक और उत्तरसाधक दोनों के प्राण लेना चाहती थी 'किन्तु तेरे रूप, यौवन और उदार हृदय से आकृष्ट होकर मैं तुझे प्राणदान देती हूं। शव अपवित्र है। उसके मुंह में स्त्री की नाक है, इसलिए वह अयोग्य है।' ... महाबल को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था परन्तु उसे यह अनुभव हो रहा था कि कोई उसे उठाकर ले जा रहा है। उसने सोचा-अरे, उस करुण क्रन्दन करने वाली नारी की नाक की बात ही याद नहीं रही, अन्यथा योगी अवश्य महाबल मलयासुन्दरी १९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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