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________________ चाहिए। इससे हमें स्वयं विश्वास हो जाएगा।' महादेवी ने पूछा--'कैसा दिव्य ?' 'घटसर्प का दिव्य बहुत भयंकर गिना जाता है। दिव्य करने से पूर्व यदि यह युवक सच-सच बता देता है तो हमें युवराज की प्रतीक्षा करनी चाहिए।' महामंत्री ने तत्काल दो गारुड़िकों तथा चार सिपाहियों को अलंबादि के पर्वत से भयंकर नाग पकड़कर लाने के लिए भेजा। महामंत्री ने यह भी कहा कि वे सीधे धनंजय यक्ष के मंदिर में पहुंचे। । दूसरी ओर महाराजा, महादेवी तथा सभी मंत्रीगण और नगर के संभ्रान्त व्यक्ति धनंजय मंदिर की ओर प्रस्थित हुए। जब सब वहां पहुंचे तब तक दिन का तीसरा प्रहर बीत चुका था। एक बड़े घड़े में सर्प लेकर गारुड़िक आ पहुंचे थे। उन्होंने महामंत्री को घड़ा दिखाते हुए कहा-'मंत्रीश्वर ! अत्यन्त श्याम, बहुत दीर्घ और भयंकर सर्प हम पकड़कर लाये हैं।' महामंत्री ने उस सर्पघट को धनंजय के मंदिर में रखवाया। उसके पश्चात् सब मंदिर के भीतर गए । महाराजा, महादेवी आदि एक ओर बैठ गए। महामंत्री ने मलया को भीतर बुलाकर कहा—'युवक ! इस घट में एक भयंकर सर्प है। ऐसी कठोर 'धीज' करने से पूर्व तुझं जो कहना है। बताना है, बता डाल।' मलया मन में नवकार महामंत्र का जाप कर रही थी। सुन्दरसेन धीमे स्वरों में बोला-'महाराज ! मनुष्य परिस्थिति के समक्ष लाचार हो जाता है। मैं कुछ बातें बता नहीं सकता। इतना मैं अवश्य कहता हूं कि महाबल मेरा परम मित्र है । हमारी मैत्री जीव एक, शरीर दो जैसी है। ये वस्त्र उन्होंने ही मुझे पहनाए थे । यह मुद्रिका उन्हीं की दी हुई है। परिस्थितिवश वे मुझे वन में छोड़कर गए थे। लंबे समय तक वे लौटे नहीं तब मैं उनकी टोह में निकल पड़ा। आपके सैनिकों ने मुझे बंदी बनाकर यहां ला उपस्थित किया।' महाराजा ने पूछा-'महाबल के पास कोई विशेष वस्तु थी?' 'हां।' 'कौन-सी ?' महामंत्री ने पूछा । 'लक्ष्मीपुंज हार । वे किसी भी उपाय से माता को बचाना चाहते थे 'मैंने ऐसा अनुभव किया था कि वे नगरी की ओर गए होंगे "किन्तु वे यहां नहीं आए। मुझे पता नहीं वे कहां गए हैं ?' __ क्षण भर सब विचारमग्न हो गए। सबने सोचा, इसको लक्ष्मीपुंज हार का वृत्तान्त ज्ञात है तो अवश्य ही यह महाबल का निकटतम मित्र होगा। किन्तु महाबल को ऐसा अपरिचित मित्र कहां से मिला? महाबल मलयासुन्दरी १८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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