SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महामंत्री ने पूछा - 'ये वस्त्र तुझ कहां मिले ?' 'ये वस्त्र मेरे प्रिय मित्र महाबल ने मुझे दिए हैं। यह राजमुद्रिका भी उन्होंने ही मुझे पहनाई है ।' 'असत्य ! यदि तू मेरे पुत्र का मित्र होता तो राजभवन में कोई-न-कोई तुझे अवश्य पहचान लेता। मुझे लगता है कि तू हमारे प्रदेश का दुर्दान्त चोर लोभसार का ही कोई साथी है । उस चोर को महाराजा जयसेन ने मार डाला है, ये समाचार अभी-अभी मुझे प्राप्त हुए हैं। उस दुष्ट चोर ने महाबल को मार डाला होगा और उसने उसके ये वस्त्र तुझे दिए होंगे । सच बता !' महाराजा ने पूछा । 'महाराज ! मैं सच कह रहा हूं । महाबलकुमार मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हैं । हम कब से मित्र बने, यह मैं अभी नहीं बता सकता ।' 'तो फिर महाबल कहां है ?" ' इसी वन- प्रदेश में होंगे ।' बोले - ' सुन्दरसेन ! महाबल यदि यहीं महाराजा सुरपाल इस उत्तर को सुनकर तमतमा उठे । वे तेरा चेहरा जितना सुन्दर है, उतना ही काला है तेरा हृदय । होता तो मेरे से मिले बिना कैसे रहता ? सैनिक उसकी खोज में चारों ओर भटक रहे हैं। सच बता अन्यथा तुझे कठोरतम दंड मिलेगा ।' मलया मौन रही । महाराजा ने तत्काल आज्ञा दी - ' इस दुष्ट नौजवान को वन में ले जाओ और वहां इसका वध कर डालो ।' यह आज्ञा सुनते ही मलया असमंजस में पड़ गई । अरे, यह कैसी विपत्ति आ गई ? महाबल को ढूंढ़ने के लिए ही तो मैं इस ओर आ रही थी और यहां उनकी कोई खोज-खबर ही नहीं है । मलया विचारों में उलझ गई। तत्काल वह जागी । उसने सोचा, आन्तरिक बल को क्षीण नहीं करना चाहिए। वह महामंत्र नवकार का जाप करने लगी । महामंत्री ने कहा - 'महाराजश्री ! जब तक दोष प्रमाणित न हो जाए, तब तक इतना कठोर दंड न्याय नहीं कहा जा सकता। संभव है यह युवक सच कहता हो । आप पुनः सोचें ।' 'महामंत्रीश्वर ! अनेक धूर्त व्यक्ति अपने अपराध को छिपाने के लिए भोलेपन का अभिनय करते हैं और अत्यन्त चतुर व्यक्ति को भी धोखा दे देते हैं ।" 'तो फिर महाराज ! हमें इस नौजवान को 'दिव्य" करने के लिए कहना १. प्राचीन काल में, एक प्रकार की परीक्षा, जिससे किसी का अपराधी या निरपराध होना सिद्ध होता था । (मानक हिन्दी कोश) राजस्थानी भाषा में इसे 'धीज' कहा जाता है । १८८ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy