SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस वन-प्रदेश में किसी भी आदमी का मुंह तक उसने नहीं देखा। वह असमंजस में पड़ गई। वन-प्रदेश से वह सर्वथा अपरिचित थी। किससे पूछे पृथ्वीस्थानपुर का मार्ग ? वह अजानी दिशा में मन में अनेक संकल्प-विकल्पों को संजोए चली जा रही थी। . सूर्योदय हुए तीन घटिका काल बीत चुका था। रास्ते में चलते-चलते मलया ने एक सुन्दर सरोवर देखा । वह तत्काल उसके निकट गई."हाथ-मुंह धोकर कुछ स्वस्थ हुई । भूख लग चुकी थी। पास में कुछ पाथेय था नहीं। उसने इधर-उधर देखा और उसकी दृष्टि एक फलवान वृक्ष पर जा टिकी। ___. वह तत्काल फल लेने गई । फलों को देखकर उसने सोचा, ऐसे फल मैंने कभी खाए हैं, यह सोच उसने कुछ फल तोड़े और क्षुधा को शांत किया । मलया का चित्त स्वस्थ हुआ । थकावट मिटी और वह आगे बढ़ गई। दिन का पहला प्रहर बीत गया। कोई राहगीर नहीं मिला। कुछ दूर आगे जाने पर उसने राज्य के दो सैनिकों को देखा। : राज्य के कुछ सैनिक जिस दिन से महाबल राजप्रासाद छोड़कर गया था, उसी दिन से उसकी खोज में दर-दर भटक रहे थे। ये दोनों सैनिक भी उसी खोज में निकले हुए थे। ____ मलया ने सोचा, इन सैनिकों को पूछ्रे कि पृथ्वीस्थानपुर का मार्ग कौन-सा है ?.. "इतने में ही वे पुरुषवेशधारी मलया के सामने आ गए। : मलया खड़ी रह गई। सैनिक निकट आए । मलया कुछ कहे उससे पूर्व ही सैनिकों ने मलया द्वारा पहने हुए महाबल के वस्त्रों को पहचान लिया । एक सैनिक ने पूछा--'तू कौन है ?' 'मैं एक परदेशी पथिक हूं।' 'तूने जो वस्त्र पहन रखे हैं, ये कहां से लिये ?' मलया मौन रही। सैनिक ने पुनः पूछा। मलया ने कहा---'ये वस्त्र मेरे हैं।' 'नहीं, ये वस्त्र हमारे युवराज के हैं. ''अवश्य ही तूने हमारे युवराज को लूटकर या मारकर ये वस्त्र लिये हैं 'पकड़ो इस शैतान को !' ... मलया गंभीर विपत्ति में फंस गई। फिर भी उसने जान लिया कि ये सैनिक और कोई नहीं, पृथ्वीस्थानपुर के ही हैं। यह सोचकर मलया ने समर्पण कर दिया। 3 सैनिकों ने उसे तत्काल बंदी बना लिया। दोनों सैनिक पुरुषवेशधारी मलया को साथ ले पृथ्वीस्थानपुर की ओर चल पड़े। १८६ महाबल मलयासुन्दरी ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy