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________________ पर छिड़की और कहा--'वत्स ! मैंने तुझे उत्तर-साधक की दीक्षा दी है। 'शव' यहां आते ही मेरा कार्य सम्पन्न हो जाएगा। किन्तु जब तक कार्य-सिद्धि न हो, तब तक तुझे यहीं रहना होगा।' - परोपकार की भावना से ओत-प्रोत महाबल ने योगी को स्वीकृति दे दी फिर वह वृक्ष पर लटकते शव को लेने आगे बढ़ा। वहीं वह नारी रुदन कर रही थी। महाबल उसके पास जाकर बोला-'बहन ! इस विकट वन-प्रदेश में आप अकेली बैठी हैं, रो रही हैं। क्या किसी ने आपका अपहरण किया है या और कुछ...? यह स्त्री और कोई नहीं, मलयासुन्दरी की अपरमाता रानी कनकावती थी। अपने प्राणदाता प्रियतम के शव के पास बैठी हुई वह करुण क्रन्दन कर रही थी। इस भयंकर वन-प्रदेश में किसी भद्रपुरुष के मधुर स्वरों को सुनकर उसने महाबल की ओर देखा किन्तु वह उसे पहचान नहीं पायी। वह बोली-भाई! मेरा सर्वस्व लुट गया है ''शत्रुओं ने मेरे प्रियतम की हत्या कर उसके शव को इस वृक्ष पर लटका दिया है।' - 'आपके प्रियतम का नाम ?' 'इस वन-प्रदेश का विख्यात चोर लोभसार मेरा आश्रयदाता था। उसके बिना मेरा जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।' रानी कनकावती ने दीन स्वरों में कहा । । __ महाबल को स्वर परिचित-से लगे "किन्तु वह पहचान नहीं सका । दो क्षण विचार कर वह बोला-'बहन ! रोने से कुछ नहीं होगा। आप शांत रहें और अपने स्थान पर लौट जाएं। आप कहें तो मैं आपको आपके स्थान पर पहुंचा दं । आप कहें तो आपके प्रियतम का अग्नि-संस्कार कर दूं.''आप धैर्य रखें और इस भयंकर वन-प्रदेश को छोड़कर अपने निवास स्थान पर चली जाएं।' उत्तरीय के कोने से आंसुओं को पोंछती हुई कनकावती बोली-'भाई ! मेरा एक काम करोगे? 'बोलो।' 'यह शव कुछ ऊंचाई पर है। इसे नीचा करो। मैं अपने प्रियतम के मुंह का अंतिम बार स्पर्श कर लूं। फिर मैं अपने स्थान पर चली जाऊंगी, आप शव का जो करना चाहें करें। ___महाबल ने मन-ही-मन सोचा-मोहग्रस्त व्यक्ति कितना अंधा हो जाता है ? मरे हुए के स्पर्श में कोई आनन्द नहीं आता, कोई तृप्ति भी नहीं होती। फिर भी उसने मधुर स्वर में कहा-बहन ! खड़ी हो जाएं। 'मैं नीचे झुकता हूं... आप मेरी पीठ पर चढ़कर अपने प्रियतम के मुंह का स्पर्श कर लें।' महाबल मलयासुन्दरी १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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