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रात्रि का दूसरा प्रहर बीत गया। चन्द्रसेना का नृत्य पूरा हुआ ।
दूसरा कार्यक्रम प्रस्तुत हो उससे पूर्व ही महावल अपने आसन से उठा और वज्रसार धनुष्य के पास आकर ललकारते हुए कहा- कौन हैं वे विद्रोही जो अपने आपको श्रेष्ठ और दूसरों को हीन मान रहे हैं ? उनके संशय के पीछे अपमान की गंध आ रही है। स्वयं की दुर्बलता दूसरों पर थोपकर अपने को शक्तिशाली मानने वाले मेरे सामने आकर प्रश्न करें ।' यह कहते-कहते महाबल ने उस प्रचंड वज्रसार धनुष्य को उठाया और प्रत्यंचा को खींचा।
सारी सभा में सन्नाटा छा गया ।
सभी स्त्री-पुरुष चले गए ।
एक भी विद्रोही राजकुमार सामने नहीं आया ।
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महाबल ने कहा – 'किसी राजकुमार का परिचय जानना हो तो उसके भुजबल से जानो । यही उसकी सही पहचान है । जो यहां कुछ अनिष्ट घटित करना चाहते हैं, वे स्वयं समझ लें, उनका अनिष्ट तो निश्चित ही हो जाएगा ।" सभी विद्रोही राजकुमार नीचा मुंह लटकाए धीरे-धीरे खिसक गए । कार्यक्रम सम्पन्न हो चुका था ।
मलयासुन्दरी और महाबल तत्काल वहां से घोड़े पर चढ़, भट्टारिका देवी के मंदिर में चले गए। साथ में किसी को नहीं लिया । यह वही मंदिर था जहां घटनाओं-कल्पनाओं का सर्जन हुआ था, इसलिए मलयासुन्दरी स्वयंवर होते ही वहां जाना चाहती थी ।
दोनों वहां आए। मंदिर में देवी के दर्शन किए और कुछ विश्राम कर लौटने लगे ।
मलया ने कहा- 'प्रियतम ! आज अवसर मिला है। रात्रि भ्रमण का आनन्द लें। कुछ देर घूम-फिर लें, पश्चात् चलेंगे ।'
महाबल मलया के साथ बाहर निकल गया ।
अश्व मंदिर के बाहर ही बंधे हुए थे ।
कुछ दूर गए। इतने में ही मलया चौंकी । उसने कहा
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'प्रियतम ! कोई
आ रहा है । मेरे कानों में शब्द सुनाई दिये हैं ।'
कुछ
क्षणों बाद उन्होंने सुना - 'अरे ! आज मैं सारे दिन तेरा इन्तजार करता रहा. कहां चला गया था ?"
'अरे मित्र ! आज तो बहुत दूर चला गया था ।'
'अरे, उसके पीछे तो नहीं गया था ?"
'नहीं रे, नहीं । उस रांड के पीछे कौन जाए ? वह तो सागर के किनारे किसी का घर आबाद कर रही है ।'
१७४ महाबल मलयासुन्दरी
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