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________________ रहा था । वह डरी। फिर भी हिम्मत कर एक शिलाखण्ड पर चढ़कर उसने चारों ओर देखा । सारा वन- प्रदेश सुनसान पड़ा था । उसका हृदय बैठ गया । कनकावती पुनः गुफा में लौट आयी। कुछ समय पश्चात् एक लाठी लेकर वह बाहर निकली और लोभसार के कथनानुसार उसको खोजने के लिए चल पड़ी । रात्रि का समय अजाना प्रदेश वन की भयंकरता "सब कुछ होते हुए भी कनकावती अपने नये प्रियतम को ढूंढ़ने निकल पड़ी । आज वह महाराजा वीरधवल को भूल चुकी थी, चन्द्रावती नगरी की राजरानी की गौरव गाथा भी उसे याद नहीं थी । कोमलांगी नारी में ऐसा बल कहां से आता होगा ? इस प्रश्न का समाधान कोई नहीं दे पाता । नारी कोमल है, पर वह अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए वज्र से भी कठोर बन जाती है । एक चूहे से डरने वाली नारी वन- प्रदेश में सिंह को देखकर भी प्रकंपित नहीं होती । Contact को दिशा का भान नहीं था । वह चल रही थी । ऊंची-नीची भूमि को पार करती हुई वह वन- प्रदेश की नीची भूमि में पहुंच गई । अरे, यह क्या है ? उसकी दृष्टि राख के ढेर एक पर गई । वह निर्ममतापूर्वक उस ओर बढ़ी‘''उसने देखा कि राख का ढेर है, जहां जयसेन के सैनिकों ने लोभसार के ग्यारह साथियों के शवों को जलाया था । कनकावती ने अपनी लाठी से राख के ढेर को इधर-उधर किया । उसने देखा कि अभी उस राख के ढेर में नीचे अंगारे सुलग रहे थे । उसने सोचा- अरे, यहां afro किसने जलायी ? कुछ ही दूरी पर बिखरी पड़ी पगड़ियों पर कनकावती की दृष्टि गई । वह चौंकी । वह साहस कर उन पगड़ियों के पास गई। उसने पहचान लिया कि वे सारी पगड़ियां लोभसार के साथियों की हैं । अरे, तो क्या यह राख का ढेर उन्हीं साथियों का है ? यह विचार आते ही कनकावती कांप उठी । उसने सोचा तो फिर लोभसार कहां है ? क्या वह भाग गया ? अथवा किसी ने उसे पकड़ लिया ? वह पुनः उस राख के ढेर के पास गई । लकड़ी से राख को कुरेदा । हड्डियों के टुकड़े दीखने लगे। कुछ राख हो चुके थे, कुछ अधजले थे, कुछ वैसे ही थे । कनकावती के मन में प्रश्न हुआ - क्या ये सब मेरे प्रियतम के साथियों की हड्डियां हैं ? क्या उन्हें किसी ने मार डाला ? अथवा मेरे साहसी प्रियतम ने शत्रुओं को मारकर चिता जलाई है ? नहीं, यदि ऐसा हुआ होता तो वे शीघ्र ही गुफा में आ जाते। तब ? कनकावती आगे बढ़ी। वह बिलकुल अजान थी । वह दिशा - शून्य होकर चल महाबल मलयासुन्दरी १७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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