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एक घटिका पश्चात् लोभसार खण्ड में आया । भयभीत रानी कुछ आश्वस्त हुई । लोभसार ने रानी के कंधे पर हाथ रखकर कहा--'प्रिये ! चिंता का कोई कारण नहीं है। जितने आए हैं उन सबके लिए मैं अकेला ही पर्याप्त हूं। अभी उनको यमलोक पहुंचाकर आता हूं। तू डर मत ।' __ कनकावती रुदन के स्वर में बोली-~-'प्राणेश ! मैं आपके बिना एक पल भी नहीं जी सकती।' ___'तू अपने मन को मजबूत बनाए रखना । मैंने कल तुझे अपना गुप्त भंडार दिखाया था । उसको खोलने और बंद करने की विधि भी मैं तुझे बता देता हूं। यदि मैं आज सांझ तक न लौटूं और तुझे यहां से निकलना पड़े तो तुझं उस गुफा का प्रवेश-द्वार कैसे खोलना है, वह सारा रहस्य मैं तुझे अभी बता दूंगा।'
'सैनिक कौन हैं ?' _ 'मैं भी नहीं जानता', कहते हुए लोभसार ने रानी का आलिंगन किया और उसे सारे रहस्य बता दिये।
अब वह अपने आठ-सात साथियों को साथ लेकर भागने के लिए तैयार हुआ।
उसे यह ज्ञात नहीं था कि जिस गुप्त द्वार से वह भाग जाना चाहता है, वहीं महाराज जयसेन अपने पांच वीर सैनिकों को साथ लेकर छिपे बैठे हैं । मुख्य द्वार पर सेनानायक पन्द्रह सैनिकों को साथ लेकर खड़ा था।
जहां जयसेन बैठे थे, वहां से आठ-दस हाथ की दूरी पर एक गुप्त सुरंग थी। उस पर एक शिलाखंड रखा हुआ था। यही लोभसार का गुप्त स्थान था। परन्तु इसकी खबर किसी को नहीं थी। सब चोरों की प्रतीक्षा कर रहे थे और यह सोच रहे थे कि चोर इस रास्ते से ही आयेंगे। __ इतने में ही एक सैनिक की दृष्टि आठ-दस हाथ की दूरी पर एक शिलाखंड पर पड़ी, जो धीरे-धीरे खिसक रहा था। उसने संकेत से महाराजा जयसेन को बताया।
महाराजा जयसेन ने देखा कि जो पत्थर दो-चार मनुष्यों से भी नहीं खिसकाया जा सकता, वह स्वतः खिसक रहा है।
सभी छिपकर, दुबककर बैठ गए।
गुप्त द्वार का विशाल शिलाखण्ड खिसका और छोटे द्वार जितना छिद्र दिखाई दिया, जिसमें से एक व्यक्ति निकल सकता हो।
___ सबसे पहले लोभसार, हाथ में नंगी तलवार लिये उस द्वार से बाहर निकला। विकराल आंखें, श्याम वर्ण, लंबा-चौड़ा शरीर ''उसको देखते ही देखने वाला हड़बड़ा जाता है। लोभसार बाहर आया। उसने चारों ओर देखा। फिर कहा-'बाहर आ जाओ। हमें मुख्य द्वार पर खड़े सैनिकों को समाप्त कर
१६८ महाबल मलयासुन्दरी
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