SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाले की खबर उसे तत्काल मिल जाती थी। स्थान-स्थान पर उसके आदमी कार्यरत थे। उनके संदेश से वह सावचेत हो जाता और आने वाला बेचारा भटक जाता, मारा जाता। लोभसार को यह कल्पना भी नहीं थी कि आज रंगराग में डूबा हुआ उसका यह गुप्तस्थान मृत्यु की किलकारियों से चीख उठेगा। मनुष्य कितना ही पराक्रमी हो, बुद्धिमान और चतुर हो, परन्तु जब वह कामासक्त होता है तब अपना सर्वस्व भूल जाता है। उषा की रश्मियां फैलने लगीं. "मंद-मंद प्रकाश हुआ किन्तु गुफा में सब निद्रादेवी की गोद में सो रहे थे। महाराजा जयसेन के साथ आया हुआ पथ-दर्शक आगे बढ़ा। उसे एक धनुष्य और तीर पड़े दीखे। उसने तत्काल कहा---'महाराज ! चोर का अड्डा यहीं है। अब आप पराक्रम और बुद्धिमत्ता से काम करें।' इतने में ही प्रातःकर्म से निपटने के लिए तीन चोर उधर से आते दिखायी दिए । जयसेन का सेनानायक उतावला हो उठा और सात-आठ सिपाहियों को साथ ले उन्हें पकड़ने दौड़ा। उन चोरों ने उन्हें देख लिया था। वे तत्काल मुड़े। दो भाग गए, एक पकड़ा गया। उन दोनों ने अपने साथियों से सारी बात कही। वे सब चिन्तातुर हो गए। सरदार लोभसार अभी सो रहे थे। उनको जगाने के लिए एक चोर उस गुफाकक्ष की ओर गया। सरदार के गुफा-द्वार पर एक परदा लगा हुआ था। साथी ने वहां जाकर पुकारा-'सरदार''सरदार''सरदार'..!' सरदार लोभसार अभी सो रहा था। रानी कनकावती जागकर अपने वस्त्र व्यवस्थित कर रही थी। उसने आवाज सुनी। वह तत्काल लोभसार के पास आयी और उसको जागृत करते हुए बोली--'कोई बुला रहा है।' लोभसार ने आंखें खोली और कनकावती को दोनों हाथों से पकड़कर भुजपाश में बांध लिया। फिर आवाज आयी--'सरदार'' 'सरदार !' लोभसार ने पूछा- कौन है ?' 'सरदार ! गजब हो गया। सात-आठ सैनिक हमारे परिसर में आ पहुंचे हैं। हमारा एक साथी पकड़ा गया है। बाहर से साथी ने कहा। 'हैं, कहता हुआ लोभसार शय्या से उठा और गुफा से बाहर निकल गया। रानी का मन भयभीत हो चुका था। उसने सोचा, मुझे मनपसंद का आश्रय मिला था। क्या यह भी छूट जाएगा? राजा वीरधवल के राजपुरुष तो मेरी टोह में यहां नहीं आ गए हैं ? इन विचारों में रानी खो गई। महाबल मलयासुन्दरी १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy