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________________ ३२. लोभसार का अन्त महाचोर लोभसार का मूल नाम 'लोहखुर' था, किन्तु वह जहां भी चोरी करता, वहां एक कौड़ी भी पीछे नहीं छोड़ता, इसलिए उसका नाम 'लोभसार' प्रसिद्ध हो गया। पिछले पांच वर्षों से उसे पकड़ने के लिए आसपास के राजा प्रयत्न कर रहे थे, पर वह पकड़ में नहीं आ रहा था। वह पृथ्वीस्थानपुर के परिसर में ही रहता था, परन्तु उसके गुप्तस्थान का पता किसी को नहीं था। किन्तु अभी तीन दिन पूर्व पृथ्वीस्थानपुर के निकटवर्ती एक राजा जयसेन ने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक वह लोभसार को नहीं पकड़ लेगा, तब तक राज्य में पैर नहीं रखेगा। इसलिए वह अपने साथ सौ वीर सैनिकों को लेकर निकल पड़ा था। वह लोभसार के अड्डे के आसपास वन-प्रदेश में आ पहुंचा था। लोभसार उस निशा में मदिरा के नशे में धुत्त होकर रानी कनकावती के साथ यौवन की मस्ती का आनन्द ले रहा था। उसी रात को जयसेन लोभसार के स्थान के आस-पास चक्कर लगा रहा था। उसे यह निश्चित ज्ञात हो चुका था कि महाचोर का आवास-स्थान यहीं कहीं है। राजा जयसेन ने उस अलंबगिरि के दुर्गम प्रदेश में रहना निश्चित किया। लोभसार के साथ निरन्तर रहने वाले साथियों की संख्या ग्यारह थी। वे सब आज अपने सरदार की अपूर्व उपलब्धि की प्रसन्नता में आकंठ मदिरापान कर, नशे में मत्त होकर गुफा के अन्य कक्ष में सोए पड़े थे। आस-पास के प्रदेश की चौकसी रखने वाला चोर भी आज कहीं सोया पड़ा था। और कनकावती के साथ प्रथम और अंतिम रात भोगने वाला महाचोर रात्रि के अंतिम प्रहर में निद्राधीन हो चुका था। रानी कनकावती भी थककर अनग्न अर्द्धवस्था में लोभसार के पास नींद ले रही थी। __ पहले लोभसार की इतनी व्यवस्था थी कि दो-चार कोस की दूरी पर आने १६६ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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