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________________ कार्य।' 'कहें, क्या कार्य है ?' 'बड़ी कठिन समस्या खड़ी हो गई है। मुझे दो-तीन दिन के भीतर-भीतर पृथ्वीस्थानपुर पहुंचना जरूरी है । यदि इस अवधि में मैं वहां नहीं पहुंचता हूं तो मेरी माता का जीवन संकट में पड़ जाएगा और संभव है मेरे पिताश्री भी अपने जीवन की बाजी लगा बैठे। इसलिए एक बार मैं वहां जाकर पुनः लौट आऊंगा।' महाराजा वीरधवल यह सुनकर अवाक् रह गए। मन में एक संदेह उभरा कि क्या राजकुमारों का संदेह सही है ? इस प्रकार यह नौजवान यहां से छिटक जाना चाहता है ? नहीं''नहीं'''यह संशय व्यर्थ है। निमित्तज्ञ के पत्रानुसार यही महाबल है। वे बोले-'युवाराजश्री! इस प्रकार आप यहां से जाएं, यह उचित नहीं । अरे, आपकी सेना तो कल यहां पहुंचने वाली है।' ___ महाबल बोला--'महाराज ! लग्नमंडप में रक्तपात न हो, इसलिए मुझे असत्य का सहारा लेना पड़ा। मैं अपनी माता का एक कार्य सम्पन्न करने के लिए घर से निकला था। मार्ग में विपत्तियों में फंस गया और अचानक यहां आ पहुंचा । यदि मैं अपनी माता का कार्य पूरा नहीं करता हूं तो मातुश्री देह का विसर्जन कर देंगी और उसके दोष का भागी मैं बनूंगा । इसलिए मुझे जाना ही होगा।' 'युवराजश्री ! मुझे आपके प्रति तनिक भी संदेह नहीं है; क्योंकि आप मेरे जामाता बनेंगे, यह बात एक निमितिज्ञ ने लग्न से कुछ दिन पूर्व ही लिखकर दे दी थी। किन्तु यहां एक विपत्ति खड़ी हो गई है। कल मनोरंजन के कार्यक्रम में कुछेक राजकुमार आप का वध कर मलयासुन्दरी का अपहरण करेंगे। वे आपको कोई ऐन्द्रजालिक छद्मवेशी मानते हैं। यदि आप इस प्रकार यहां से . चले जाएंगे तो उनका संशय दृढ़ होगा और तब स्वयंवर में आए हुए सभी राजे एकत्रित होकर बड़ी समस्या खड़ी कर देंगे।' ___महाबल बोला-'महाराजश्री ! आप चिन्ता न करें। मैं कल सायंकाल तक यहीं रुक जाऊंगा, किन्तु मध्यरात्रि के बाद मुझे जाना ही पड़ेगा और आप उसकी यथायोग्य व्यवस्था कर दें। _ 'युवराजश्री ! मैं प्रबन्ध कर दूंगा''मेरे पास एक यंत्रनौका है और एक शीघ्रगामी ऊंटनी है।' _ 'महाराजश्री ! आप यंत्रनौका की व्यवस्था रखें, जिससे मैं प्रभात के पूर्व वहां पहुंच जाऊं।' 'ऐसा ही होगा।' महाराजा मलया के पास गए। १६२ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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