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________________ आर्य सुशर्मा ने श्वेत वस्त्र का चित्रपट्टक एक मंच पर रखा । विविध रंगों से भरे कटोरे का एक थाल त्रिपदी पर रखा और एक मिट्टी के बर्तन में पिच्छियां एकत्रित की । जल से भरा एक कलश एक ओर रखा। इतना कार्य हो जाने पर वह आंखों पर पट्टी बंधाने के लिए तैयार हो गया। महाराज वीरधवल का महाप्रतिहार आगे आया। उसने चित्रकार की आंखों पर श्याम वर्ण का एक पट्टा कसकर बांध दिया। उसने उस पट्टे के पांच आंटे दिए, जिससे कि कलाकार कुछ भी न देखने पाए। चित्रकार ने अपने दोनों हाथों से चित्रपट्टक का पूरा स्पर्श किया। उसने पूरा अनुमान कर, एक पिच्छी उठाकर अपने उपयुक्त रंगवाली कटोरी में उसे डुबोया और रेखाएं अंकित करना प्रारम्भ कर दिया। सारी सभा एकटक उसकी ओर निहार रही थी। राजा, रानी तथा मन्त्री वर्ग चित्रकार की क्रिया को सूक्ष्मता से देख रहे थे। सभी सभासद् चित्रकार की पिच्छी को देख रहे थे। उन्होंने देखा कि जहां जिस वर्ण की आवश्यकता होती है, कलाकार की पिच्छी उसी वाली कटोरी में जाती है और कलाकार उपयुक्त वर्ण से चित्रांकन करता चला जाता है । उनके मन में यह सन्देह उभरा कि मनुष्य बिना देखे ऐसा कर नहीं सकता । अवश्य ही कोई दैवी शक्ति इसके पीछे कार्य कर रही है । देव सहयोग के बिना ऐसा करना असम्भव है। . एक घटिका बीत गई । राजपुरोहित की आकृति स्पष्ट रूप से पट्ट पर उभर आयी। गले में रुद्राक्ष की माला; वैसे ही नयन "दांयीं ओर आंख के नीचे वैसा . ही काला मसा, नीचे का होंठ उतना ही मोटा। एक घटिका और बीत गई। चित्र तैयार हो गया। चित्रकार बोला-'कृपावतार ! अब मेरी आंखों पर से पट्टी हटा लें और चित्र का अवगाहन करें।' महाप्रतिहार ने पट्टी खोल दी। महाराज वीरधवल विस्फारित नेत्रों से चित्र देखते रहे। सभासदों ने चित्रकार को सहस्र-सहस्र धन्यवाद दिए । एक नागरिक ने कहा---'महाराज ! यह कार्य मानव के लिए अशक्य है। अवश्य ही कोई देवदेवी की आराधना का ही यह परिणाम है।' चित्रकार बोला---'आप ऐसा कोई संशय न रखें। यह केवल व्यक्ति की निष्ठा, श्रम और तत्परता का ही परिणाम है। जब मैं वस्तु या दृश्य को देखता हूं तो उसके साथ तन्मय हो जाता हूं। मैं उस वस्तु या दृश्य को मन पर अंकित कर लेता हूं और फिर अभ्यस्त हाथ रेखाओं के माध्यम से ८ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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