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तत्काल महाराजा ने महामंत्री से पत्र लाने के लिए कहा, क्योंकि मंत्री के पास ही वह पत्र था।
महामंत्री ने तत्काल अपने अनुचर को अपने भवन की ओर भेजा और उस पत्र को लाने के लिए सारी बात समझाई ।
लग्नविधि पूरी हुई। महामंत्री के हाथ में वह पत्र आ गया। महाबल तिरछी दृष्टि से सब देख रहा था और मन-ही-मन हंस रहा था।
महामंत्री ने वह सीलबंद पत्र महाराजा वीरधवल को दे दिया। महाराजा ने दीपमालिका के प्रकाश में उसे पढ़ा। उसमें लिखा था-'राजन् ! आपकी प्रिय पुत्री मलया पृथ्वीस्थानपुर के युवराज महाबल के गले में वरमाला पहनाएगी।'
नीचे और कुछ लिखा हुआ नहीं था। निमित्तिज्ञ का नाम और स्थान का कोई उल्लेख नहीं था। महादेवी ने कहा-'महाराज ! मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी कुलदेवी ने ही निमित्तज्ञ के रूप में यह सारा सहयोग किया है। यदि ऐसा नहीं होता तो निमित्तज्ञ अचानक कहां लुप्त हो जाते ।'
'संभव है !' कहकर महाराजा अन्यत्र चले गए।
राजकुमारी को राजभवन में ले जाने की तैयारी होने लगी। उसके लिए एक कक्ष का शृंगार किया गया था और उसे देवरमण जैसा मनोहर और सुन्दर बना दिया था।
ठीक मुहूर्त में राजकुमारी मलयासुन्दरी अपने पति महाबल के साथ राजप्रासाद में प्रविष्ट हुई। उस समय वह अपने दासियों और धाय माता से घिरी हुई थी, पर महाबल अकेला ही था। यहां उसके कोई मित्र या सगे-संबंधी नहीं थे।
इसी समय वे पांच-सात राजकुमार राजप्रासाद के उद्यान में आए और महाराजा वीरधवल से एकान्त में बातचीत करने का प्रस्ताव पहुंचाया। __उनके संदेश का सम्मान करते हुए महाराजा वीरधवल उपवन में गए। साथ में महामंत्रीश्वर भी थे। दोनों में से किसी को भी यह कल्पना नहीं थी कि ये राजकुमार किसी खतरनाक योजना को लेकर आए हैं ।
आठों राजकुमार वहां उपस्थित थे। कलिंग के राजपुत्र ने कहा'महाराज ! आपने अपनी पुत्री का विवाह जिससे किया है, वह वास्तव में युवराज महाबलकुमार नहीं है। वह राजपुत्र नहीं है।'
मंत्रीश्वर ने पूछा--'इस संशय का आधार क्या है ?'
वह बोला-'मंत्रीश्वर ! यदि यह पृथ्वीस्थानपुर का युवराज होता तो यहां अकेला नहीं आता। साथ में सेना होती, सगे-संबंधी और मित्र होते । हमें प्रतीत
१६० महाबल मलयासुन्दरी
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