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और प्रचंड स्वर में बोला - 'महाराज वीरधवल ! एक अज्ञात कुल- शील और वीणावादक के साथ अपनी पुत्री को ब्यहाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता यदि आप इस पागल लगने वाले व्यक्ति को जामाता के रूप में स्वीकार करेंगे तो स्वयंवर मंडप में रक्त की नदी बह जाएगी ""यह युद्धभूमि बन जाएगी ।'
इतने में ही दूसरे दस-बीस राजकुमार उठे और बोले— 'हम इसका बदला यहीं, अभी लेकर रहेंगे ।'
महामंत्री ने युवक की ओर देखकर कहा - 'श्रीमान् का परिचय ?'
'क्षत्रियपुत्र का परिचय उसके बाहुबल से होता है किन्तु मैं इस आनंदमय अवसर को रक्तरंजित करनेवाली प्रवृत्ति में नहीं बदलूंगा "आप निश्चिन्त रहें" मैं ही सबको उत्तर दे देता हूं।' यह कहकर महाबलकुमार पीठिका की चौकी पर चढ़ा और प्रचंड आवाज में बोला - 'महानुभावो ! मैं अज्ञात कुलशील वाला नहीं हूं और बिना निमंत्रण के भी यहां नहीं आया हूं। मैं महाराजा सुरपाल का पुत्र महाबलकुमार हूं। मुझे स्वयंवर का निमंत्रण प्राप्त है । मार्ग में विपत्ति आ गई; इसलिए मुझ अकेले को यहां आना पड़ा और मैं अभी-अभी यहां पहुंचा हूं । इतना परिचय प्राप्त कर लेने पर भी यदि आप संग्राम करना चाहते हैं तो मैं तैयार हूं ।'
महाराजा वीरधवल, महादेवी चंपकमाला और मंत्रीश्वर तीनों हर्षित हो
गए ।
महाबल का परिचय सुनकर हजारों प्रेक्षकों ने जय-जयकार के नाद से स्वयंवर मंडप को गुंजायमान कर दिया ।
चंपकमाला ने पुत्री मलया के मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा - 'पुत्री ! मैं तेरी जननी नहीं, शत्रु हूं। जब तक तू मुझे क्षमा नहीं करेगी, तब तक मुझे संतोष नहीं होगा ।'
'मां आपके उपकार का बदला मैं कभी नहीं दे सकती । मेरे हृदय में आपके प्रति तनिक भी रोष नहीं है । मैंने जो कुछ कष्ट सहे, जो आरोप मेरे पर आए, उन सबका कारण मेरे अपने ही कर्म हैं, आप स्वस्थ रहें चित्त को स्वस्थ रखें और मन को सन्तुष्ट बनाएं ।'
महाराजा वीरधवल पास में ही खड़े थे । उन्होंने पुत्री के दोनों हाथ पकड़कर कहा - 'पुत्री ! मैंने क्षमा न करने योग्य अपराध'
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बीच में ही मलया बोली - 'पिताश्री ! आप आगे कुछ भी न कहें । आपने कोई अपराध नहीं किया । माता-पिता के रोष से भी संतान का हित ही होता है, यह तथ्य मेरी घटना से स्पष्ट हो गया है। यदि आप वैसा नहीं करते तो आज का यह रोमांचक दृश्य देखने को नहीं मिलता और मुझे ऐसे प्रतापी और
महाबल मलयासुन्दरी १५७.
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