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महाबल अब अपने मूल वेश में था । कोई भी उसे पहचान नहीं सका । निमित्तज्ञ के रूप में उसकी वेशभूषा और हाव-भाव भिन्न थे, इसलिए उसे पहचान पाना कठिन था ।
वीणा के मधुर वादन से स्वयंवर मंडप का वातावरण रसमय बनने लगा । वीणा की स्वरध्वनि स्तम्भ के भीतर मलया के कानों से टकरायी और उसने पूर्व सूचना के अनुसार स्तम्भ के दरवाजे की सांकल खोल दी। किन्तु द्वार खुल न जाए इसलिए उसने भीतर से उसे पकड़े रखा ।
सभी की दृष्टि वीणावादक पर स्थिर हो चुकी थी । महाराजा ने मंत्रीश्वर से पूछा - 'कौन है ?'
'कोई दर्शक - जैसा लग रहा है मंडप का वातावरण निराश और गम्भीर हो गया था । उसे आनन्दमय बनाने के उद्देश्य से यह यहां आया है ।' मंत्रीश्वर ने कहा ।
और सबके देखते-देखते वीणावादक ने वीणा को एक ओर रख पीठिका को तीन बार प्रणाम कर स्तम्भ की ओर देखा ।
वह मन-ही-मन नवकार मंत्र का स्मरण कर रहा था ।
महामंत्री ने उसे पागल समझकर मंडप से बाहर निकालने के लिए एक सेवक को भेजा ।
वह सेवक वहां पहुंचे उससे पूर्व ही महाबल ने अपने शक्तिशाली हाथों से वज्रसार धनुष्य को उठाया, उस पर बाण चढ़ाकर उसने स्तम्भ पर बाण छोड़ दिया ।
सारा सभामंडप जय-जय की ध्वनि से कोलाहलमय बन गया । वह कोलाहल शान्त हो उससे पहले ही स्तम्भ के द्वार खुल गए और उसमें से साक्षात् रूप की देव मयासुन्दरी बाहर आ गयी ।
सभी सभासद् इस चमत्कार को देख अवाक् बन गए। अनेक राजकुमार रूप की देवी मलया को एकटक देखने लगे ।
एक परिचारिका स्वर्णथाल में पुष्पमाला लेकर आयी और मलया ने वह माला महाबल के गले में डाल दी ।
उसी समय महाराज वीरधवल, महादेवी और महामंत्री वेदी के निकट
आए ।
मलयासुन्दरी माता-पिता के चरणों में नत हो गई । मलया के उन्नत उरोजों पर शोभित होने वाला लक्ष्मीपुंज हार चमक रहा था ।
माता ने हर्ष के आंसुओं से पुत्री को नहलाया, उसे उठाया और छाती से चिपका लिया ।
इतने में ही बल-परीक्षण में पराजित एक राजकुमार अपने आसन से उठा
१५६ महाबल मलयासुन्दरी
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