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'ओह, अब मैं समझ गया उस दुष्ट की दुष्टता का कारण । अब तू मेरे स्थान पर चल ।```वहां कुछ विश्राम कर स्वस्थ हो जा। फिर तू जैसा चाहेगी वैसा कर दूंगा ।' यह कहते हुए महाचोर लोभसार ने पेटी में कुछ खोजा .. वस्त्र थे इसलिए उसने तत्काल पेटी को पानी के प्रवाह में डाल दिया । उसने रानी को पकड़कर खड़ा किया और कहा - 'सुन्दरी ! आज मुझे तेरे जैसा मनोहर रत्न मिला है तू मेरे स्थान पर आ तेरी इच्छा होगी तो मैं तुझे स्वामिनी बना दूंगा ।' रानी के
हृदय में नयी आशा जागृत हुई । उसने प्रेमभरी दृष्टि से लोभसार की ओर देखा ।
लोभसार ने अपने दोनों साथियों से कहा- 'तुम दोनों यहां से चलते बनो... यक्ष महाराज की कृपा से मिले अतिथि के सत्कार की तैयारी करो। मैं आ रहा हूं ।'
दोनों साथी प्रणाम कर चले गए ।
रानी कनकावती इस भीमकाय पुरुष का हाथ पकड़े पर्वत की ओर चलने लगी ।
नदी का कलरव अब सुनाई नहीं दे रहा था । यक्ष का मंदिर भी बहुत दूर पीछे रह गया था और गाढ़ वन- प्रदेश का पर्वतीय स्थल सामने आ गया ।
रानी को चलने में कष्ट हो रहा था । पेटी में पड़ी रहने की अकड़न, मस्ती की रात में आए हुए अन्तराय की स्मृति और लक्ष्मीपुंज हार की चोरी - इन सारी बातों से रानी का हृदय टूटता जा रहा था । शरीर के कष्ट से भी भारी हो रहा था मन का कष्ट ।
लोभसार ने पूछा---' सुन्दरी ! तेरा नाम क्या है ? मैं तुझे किस नाम से पुकारूं ?'
'मेरा नाम कनकावती है आप मुझे दासी कहकर पुकारें ।'
'दासी नहीं, सुन्दरी ! तू मेरे हृदय की रानी है तुझे देखकर मैं यथार्थ में परवश जैसा हो गया हूं तू बहुत थक गयी है, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है ।'
'हां, प्रिय ! मेरा शरीर अकड़ गया है ।'
'ओह !' कहते हुए लोभसार बोला- 'तो मैं तुझे उठाकर ले चलता हूं ।' रानी कुछ कहे, उससे पूर्व ही लोभसार ने रानी को दोनों हाथों से उठा लिया ।
प्रचंड पुरुष के स्पर्श से रानी की सुप्त चेतना जाग गयी और स्वाभाविक आश्लेष से वह तरंगित हो उठी ।
लोभसार ने रानी को चुंबन से भर डाला ।
रानी को यह भी ध्यान नहीं रहा कि वह एक राजा की रानी है कुछ दिनों
महाबल मलयासुन्दरी १५३
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