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कनकावती क्षण-क्षण में नये-नये प्रश्न पैदा करती और उनकी तरंगों में डूबती रहती।
गोला नदी के तरंगों से भी अधिक तरंगित था रानी का मन ।
मन की तरंगें सागर से भी विराट होती हैं । रानी की मानसिक तरंगें क्षण भर के लिए विश्राम नहीं ले रही थीं।
समय कभी नहीं रुकता।
जब पेटी को प्राप्त करने के लिए चारों चोर एक नौका में बैठकर पेटी का पीछा करने के लिए गोला नदी में उतरे, तब तक पेटी बहुत दूर जा चुकी थी। कोई भी नौका पेटी को पकड़ पाने में समर्थ नहीं थी। फिर भी चोर आशा के नशे में गोला नदी के प्रवाह में चले जा रहे थे। सरदार का मन पेटी को प्राप्त करने के लिए ललचा रहा था।
रानी कनकावती को अपने भीतर छिपाकर ले जाने वाली पेटी तीव्र गति से प्रवाह में बही जा रही थी।
उसका पीछा करने वाली नौका चारों चोरों को अपने में बिठाए एक निश्चित गति से चल रही थी, क्योंकि वेग से गति करने में नौका के उलटने का खतरा था। सरदार ने दोनों नाविकों से कहा- 'सावधानी से चलो, पर विलम्ब मत करो। किसी भी उपाय से मुझे पेटी तक पहुंचना है। मैं तुम दोनों को मालामाल कर दूंगा।'
मालामाल होने की आशा उन दोनों चालकों के हृदय का स्पर्श कर चुकी. थी और वे तन्मयता से नौका खेते जा रहे थे।
और रात्रि का अवसान होने लगा। प्रातःकाल हुआ।
किन्तु प्रातः की नयी किरणें रानी का स्पर्श कैसे कर पातीं। चारों चोर उषाकाल के मन्द प्रकाश में इधर-उधर देखने लगे कि कहीं पेटी दीख जाए ।
क्या दीखे ? तब तक पेटी इतनी दूर निकल गई थी कि जिसकी कल्पना करना भी चोरों के लिए कठिन था।
सरदार ने नौका-चालक से कहा---'अभी भी तेजी से चलो''नदी के वेग से भी नौका का वेग तीव्र होना चाहिए।'
नाविक बोला-'महाराज ! यदि वेग के अनुकूल न चलें तो नौका के उलट जाने का भय रहता है।'
'नौका नहीं उलटेगी। तू नौका को मध्य में खेता चल; किनारे पर नहीं।' नाविक ने नौका को मध्य प्रवाह में ला दिया ।
नौका कुछ आगे बढ़ी और उलट गई। चारों चोरों की आशा पर तुषारापात हो गया। सौभाग्य चारों चोर
१५. महाबल मलयासुन्दरी
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