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________________ ने भी पूजाविधि संपन्न की। महाबल ने मंत्रोच्चारण का अभिनय करते हुए स्तंभ की तीन बार परिक्रमा की और धीरे से बोला- 'वीणावादन हो तब सावचेत हो जाना और जब उस पर तीर का प्रहार हो तब शीघ्रता से द्वार खोल देना ।' स्तंभ के पास कोई नहीं था । सब दूर थे। इसलिए किसी ने महाबल की बात नहीं सुनी। सबने यही माना कि महा निमित्तज्ञ मंत्रोच्चारण कर रहे हैं । स्तंभ की स्थापना और पूजा हो जाने पर महाबल ने महाराजा से कहा'अब आप सभी राजपुत्रों को बुला लें ।' महाराजा ने कहा – 'राजकुमारों को एकत्रित करने के लिए मंत्री गए हुए हैं। अभी सब आ जाएंगे ।' महादेवी ने पूछा- 'निमित्तज्ञजी ! मलया तो दीख ही नहीं रही है ।' 'महादेवी ! आप चिन्ता न करें । राजकन्या अवश्य ही आएगी, मेरे वचनों पर भरोसा रखें ।' कहता हुआ महाबल दूसरी दिशा में चला गया । अतिथि आने लगे । महाबल उनके आतिथ्य में लग गया । अवसर का लाभ उठाता हुआ महाबल वहां से छिटक गया। अतिथिवास में जाकर अपने वस्त्र ले वह एक पांथशाला में चला गया। इस पांथशाला में उसने कल ही एक खंड सुरक्षित रख लिया था और वहां वीणा आदि साधन जुटाकर रख छोड़े थे । स्वयंवर मंडप में विभिन्न देशों से समागत राजकुमार अपने-अपने नियत स्थान पर बैठ चुके थे। इस स्वयंवर में पांच-सात प्रौढ़ राजा भी आए थे। उनके मन में दक्षिण भारत की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी मलया को प्राप्त करने की लालसा अभी युवा थी । रूप का आकर्षण आज से नहीं, अनादिकाल से चला आ रहा है । जब से नर और नारी की सृष्टि हुई है, तब से यह है । शौर्य के प्रति नारी के हृदय में आकर्षण होता है । रूप और यौवन के प्रति मनुष्य में आकर्षण जागता है । महाराजा, महादेवी, मंत्रीश्वर तथा सभी मंत्रीगण अपने-अपने स्थान पर गए थे। सभी चारों ओर देख रहे थे । परन्तु मलयासुन्दरी के आगमन के कोई - आसार दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे । सब चिन्तातुर हो गए । ਕੰਠ महाराजा ने मंत्रीश्वर से पूछा - 'निमित्तज्ञ महोदय कहां गए हैं ?" 'महाराजा ! मैं भी उन्हीं को खोज रहा हूं। स्तंभ की स्थापना कर वे कब कहां चले गए हैं, पता नहीं है ।' 'आश्चर्य ! सभी राजकुमार और राजा राजकन्या मलयासुन्दरी को देखने के लिए तरस रहे हैं ।' महाराजा ने कहा । Jain Education International महाबल मलयासुन्दरी १४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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