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राजभवन में गया ।
राजभवन में सब जागृत हो गए थे । निमित्तज्ञ को देखकर मंत्री, तथा महादेवी बहुत प्रसन्न हुए ।
महादेवी ने पूछा - ' श्रीमन् ! मंत्र की आराधना पूरी हो गई ?” 'नहीं, पूरी नहीं हुई, कुछ अधूरी है ।'
'क्यों ? क्या कोई विघ्न आ गया था ?' महादेवी ने पूछा ।
निमित्तज्ञ बोला- 'विघ्न तो नहीं आया, किन्तु मुझे यहां जल्दी पहुंचना था, इसलिए उसे बीच में ही छोड़कर आना पड़ा। अच्छा, जो मैंने कहा था कि 'पूर्वी द्वार पर स्तंभ मिलेगा, क्या वह मिला ?'
मंत्रीश्वर ने कहा- 'अभी-अभी हमने चार प्रहरियों को भेजा है, वे सारी खोज कर बताएंगे।'
इतने में ही महाप्रतिहार ने कक्ष में प्रवेश करते हुए कहा - 'कृपावतार ! पूर्व के द्वार पर एक दिव्य स्तंभ अवतरित हुआ है ।'
'अच्छा !' ' कहकर महाराजा हर्ष-विभोर हो गए ।
महाबल बोला --- 'महाराज ! इस स्तंभ को अत्यन्त आदर और सम्मान सहित स्वयंवर मंडप में पहुंचाना चाहिए। पांच-सात व्यक्ति उसको धीरे से उठाएं और धीरे-धीरे चलते हुए वहां पहुंचें। मैं स्नान आदि से निवृत्त होकर आता हूं और मंत्रोच्चारण कर स्तंभ की स्थापना - विधि सम्पन्न करता हूं ।' महामंत्री ने महाप्रतिहार को सारी बात बताई और पूर्ण सावधानीपूर्वक स्तंभ लाने का आदेश दिया ।
महाप्रतिहार वहां से विदा हुआ । महाबल भी स्नान करने के लिए चला गया ।
सूर्योदय हो चुका था । सबके हृदय आनन्द की ऊर्मियों से उछल रहे थे । सबको यह निश्चय हो गया था कि निमित्तज्ञ के कथनानुसार कुलदेवी की कृपा से मलयासुन्दरी स्वयंवर मंडप में प्रकट होगी ।
स्वयंवर मंडप सजाया जा चुका था। एक वेदिका पर मखमल की चादर बिछी हुई थी। उस पर वज्रसार नाम का विराट् धनुष्य रखा गया था। सभी राजकुमार और राजा अपने-अपने नियत स्थान पर बैठ सकें, इसकी पूरी व्यवस्था कर दी गई थी । स्थान-स्थान पर स्वर्ण के आसन बिछे हुए थे ।
महाबल स्नान आदि से निवृत्त होकर आ गया था ।
महाराजा
मलयासुन्दरी जिसमें छिपी हुई थी, वह स्तंभ भी स्वयंवर मंडप में पहुंच गया था । महाबल ने उस स्तंभ को एक निश्चित स्थान पर खड़ा कर दिया और वह गिर न पड़े, इसलिए उसके चारों ओर अन्य लक्कड़ रख दिए थे ।
फिर महाबल ने स्तंभ की प्रतिष्ठा की, पूजा की महाराजा और महादेवी
१४६ महाबल मलयासुन्दरी
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