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२८. निराशा के बादल
रात्रि का तीसरा प्रहर प्रारम्भ हो चुका था।
मलया और महाबल उस स्तंभ को लेकर पूर्व द्वार पर स्थित एक वृक्ष के पास पहुंच गये।
अभी नगरद्वार बन्द हो चुका था और उसे खुलने में कुछ विलम्ब था।
महाबल ने उस स्तंभ को एक स्थान पर रखा । मलया ने सुन्दर वस्त्र धारण कर लिये और चमचमाते लक्ष्मीपुंज हार को पहन लिया । और मलया अपने मूल स्त्री रूप में परिवर्तित हो गई। यह तिलकजिसने किया हो और वह व्यक्ति स्वयं अपनी जीभ से उस तिलक को मिटाए तो जाति परिवर्तन हो सकता है, अन्यथा नहीं । आचार्य पद्मविजय ने यह वस्तु महाबल को भेंटस्वरूप दी थी।
__ वस्त्रालंकारों से सज्जित मलयासुन्दरी उस समय त्रिभुवनसुन्दरी के समान दीख रही थी। __उसके मन में कल होने वाले स्वयंवर की ऊर्मियां उछल रही थी और वह इस बात से बहुत प्रसन्न थी कि वह कल अपने प्राणप्रिय को पा लेगी, जिसके प्रति उसने सर्वस्व समर्पित किया था। उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था।
महाबल के चरणों में प्रणाम कर मलया उस स्तंभ के पोलाल में घुस गयी। उसके द्वार को बन्द करते हुए महाबल ने धीरे से कहा-'प्रिये ! नवकार मंत्र का स्मरण निरंतर चालू रखना।'
मलया मधुर स्वर में बोली-'महामंत्र ही हमारे जीवन का कवच है।' मलया ने भीतर से जंजीर लगा दी।
तत्काल महाबल ने स्तंभ पर तेल चुपड़ा और उस पर 'स्वर्ण' के 'बरख' चढ़ाए।
कार्य पूरा कर महाबल बोला--'अब मैं जा रहा हूं। मुझे दूसरे मार्ग से राजभवन में पहुंचना होगा।'
मलया अन्दर से बोली-'अब आपके दर्शन स्वयंवर-मंडप में ही होंगे।' महाबल ने चारों ओर देखा । उसे विश्वास हो गया कि आसपास कोई है
१४४ महाबल मलयासुन्दरी
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