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"ओह ! यदि उसको बाहर निकाल देंगे तो राजपुरुष उसे पकड़कर ले जाएंगे । अच्छा तो यह है कि हम इस पेटी को गोला नदी के तेज प्रवाह में बहा दें । प्रातःकाल होते-होते यह पेटी संभवतः मेरे राज्य की सीमा में चली जाएगी कहकर महाबल ने कुछ सोचा और कहा - 'चोर को भी मैं मुक्त कर दूं ।' कहते हुए महाबल शिखर पर चढ़ा और चोर को बाहर निकाल दिया ।
.."
चोर ने पूछा- 'मेरे साथी आ गये ?'
'नहीं'' वे यदि विलम्ब से आयेंगे तो तू दिन में भी प्रवास नहीं कर सकेगा । तू इस पेटी को उठा । हमने इसमें पत्थर भरकर इसे भारी कर दिया है । यह नदी के प्रवाह में तैरती हुई चली जाएगी । तू इसकी दूसरी दिशा में चला जा । जब तेरे साथी आयेंगे तो मैं उन्हें पेटी की दिशा की ओर रवाना कर दूंगा ।'
'आपके साथ यह युवक कौन है ?"
'यह मेरा मित्र सुन्दरसेन है ।' महाबल ने उत्तर दिया ।
'आप दोनों राजघराने के लगते हैं, पर आपने चोरी का धन्धा क्यों अपना रखा है ?' चोर ने पूछा ।
'भाई, कर्म की गति विचित्र होती है। साहूकार चोर बन जाता है और चोर साहूकार बन जाता है।' महाबल ने कहा ।
'आपका उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा ।' चोर ने कृतज्ञता प्रकट की । फिर तीनों ने मिलकर पेटी को नदी के किनारे बहा दिया। रानी को कुछभी ज्ञात नहीं हो पा रहा था।
चोर चोरी का माल लेकर दूसरी दिशा की ओर चला गया ।
पेटी तेजी से बही जा रही थी ।
मलया और महाबल निश्चित हो स्तंभ लेकर विदा हुए।
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महाबल मलयासुन्दरी १४३
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